टोक्यो ओलंपिक में भारत ने भले ही सिर्फ सात पदक जीते हैं लेकिन कुल 206 देशों वाले खेलों के इस महाकुंभ में उसने 47वें पायदान पर आकर भी दुनिया में अपनी धाक जमा दी है. इन खेलों में यह भारत का अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन माना जायेगा क्योंकि सौ साल बाद हमने एथलेटिक्स (जेवलिन थ्रो) में स्वर्ण पदक हासिल किया है. इस ओलिंपिक को भारत के खेल-इतिहास में बेटियों के कमाल के लिए इसलिये भी याद किया जायेगा कि पदक न जितने के बावजूद उन्होंने करोड़ों दिलों को जीता है.
यह सच है कि ओलंपिक में ज्यादा पदक जीतने से ही किसी देश की स्पोर्ट्स एनर्जी को मापा जाता है लेकिन टोक्यो में भारत की महिला हॉकी टीम ने इस मिथ को तोड़ दिया कि भले ही वे कांस्य पदक जीतने से चूक गईं लेकिन उसने 130 करोड़ देशवासियों के साथ ही दुनिया के हॉकी प्रेमियों के दिलों को जीतकर इतिहास की एक नई इबारत लिखी है. जब कभी भी टोक्यो ओलंपिक का इतिहास लिखा जायेगा तो उसमें महिला हॉकी का कांस्य पदक जीतने वाली ब्रिटेन की टीम से ज्यादा भारतीय टीम के जोश व प्रदर्शन की तारीफ़ की जायेगी.
भारत के ओलंपिक इतिहास में हॉकी को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है. यही एक खेल है, जिसमें हमने 1928 से लेकर 1980 तक राज किया. बीच में कामयाबी का सिलसिला टूटा और अब 41 बरस बाद कांस्य पदक मिलने से दोबारा इसमें नयी जान आई है.हॉकी में भारत ने अब तक 8 स्वर्ण पदक सहित कुल 12 मेडल अपने नाम किए हैं. लेकिन हैरानी की बात ये है कि भारत में हॉकी कानूनन अभी भी राष्ट्रीय खेल नहीं है .यह अलग बात है कि उसे वास्तव में राष्ट्रीय खेल मान लिया गया लेकिन कानूनी दर्जा नहीं दिया गया है.
शायद यही वजह है कि हॉकी इंडिया के पालनहार समझे जाने वाले ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने 18 जून 2018 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को एक चिट्ठी लिखकर हैरानी जताते हुए उनका ध्यान इस तरफ दिलाया था कि हॉकी को राष्ट्रीय खेल के तौर पर अभी तक नोटिफाई क्यों नहीं किया गया है.
खैर,पानीपत के पानी की तासीर का फर्ज अदा करते हुए नीरज चोपड़ा ने भाला फेंकने में जो कमाल दिखाया, वो अद्भत व अद्वितीय होने के साथ ही दुनिया में भारत की धाक जमाने में मील का पत्थर ही कहा जायेगा. इस खेल में सौ साल बाद और ओलंपिक में 13 साल बाद स्वर्ण पदक लाकर उन्होंने देश का मान बढ़ाने के साथ इज़्ज़त भी बचा ली. मिल्खा सिंह और पीटी ऊषा के स्वर्ण पदक न लाने की जो कमी भारत को अभी तक खल रही थी, उसे उन्होंने पूरा कर दिखाया. क्योंकि सिवा उनके गोल्ड मैडल की कोई उम्मीद बची ही नहीं थी. वैसे यह निराशा का नहीं बल्कि अपनी कमियों को सुधारने की तरफ ध्यान देने का विषय होना चाहिए कि इतने सारे खेलों में हमारे खिलाड़ी बेहतर प्रदर्शन करने के बावजूद आखिर पदक लाने से कैसे व कहां चूक गये.
निशानेबाजी, तीरंदाजी, बॉक्सिंग, दौड़, तैराकी, घुड़सवारी, टेबल टेनिस, तलवारबाजी, चक्का फेंक जैसे कई खेल ऐसे थे,जहां हमें पदक मिलने की उम्मीद थी लेकिन हमारे खिलाड़ियों का प्रदर्शन उम्मीद से कम रहा. लेकिन इस ओलिंपिक की यह भी एक बड़ी उपलब्धि है कि इसमें शामिल हुए भारत के 120 खिलाड़ियों में से अधिकांश का नाता बेहद साधारण परिवारों और छोटे शहरों व कस्बों से रहा और जिन्हें खेल विरासत में नहीं मिला था बल्कि उन्होंने अपनी मेहनत-लगन के दम पर ओलम्पिक तक पहुंचने का मुकाम हासिल किया. यह भारतीय इतिहास में सबसे बड़ा दल था जिसमें 68 पुरूष और 52 महिला खिलाड़ियों ने शिरकत की. पहली बार भारत को दोहरे अंक में पदक जीतने की उम्मीदें बंधी थी और इनमें भी सबसे अधिक 15 निशानेबाज से हमें पदक लाने की आस थी जो पिछले दो वर्ष में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी सफलता अर्जित कर चुके थे.
बहरहाल, भारत को अब तीन साल बाद 2024 में होने वाले पेरिस ओलंपिक में अपना पूरा दमखम दिखाने के लिए अभी से तैयारी करनी होगी. हमें अन्य खेलों के अलावा हॉकी से गोल्ड मैडल लाने की सबसे अधिक उम्मीद रहती है क्योंकि पिछले 93 बरस से ओलंपिक में ईसी एक खेल पर हमारा दबदबा रहा है. हमारी दोनों हॉकी टीमों को विदेशी टीमों खासकर ऑस्ट्रेलिया, बेल्जियम और नीदरलैंड्स की टीमों को लेकर बैठे मनोवैज्ञानिक डर को ख़त्म करना होगा और अपनी कमियों के साथ उनकी खूबियों की बारीकियों को भी समझना होगा. टोक्यो का कांस्य ही पेरिस का स्वर्ण पदक दिलाने में भारत के लिये एक असरदार टॉनिक साबित होगा.
नरेन्द्र भल्ला
(लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)