बहस से बड़ी अमल की चुनौती

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देश की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति वस्तुत: यहां की प्राचीन ज्ञान-परंपरा तथा वैश्विक शिक्षा-नवाचारों के समन्वय का प्रयास है। अभी इसके क्रियान्वयन की चुनौती देश के सामने है। 135 करोड़ की आबादी वाले भारत की मुख्य ताकत इसकी युवा पीढ़ी है, जिसे बार-बार ‘इंडियन यूथ डिविडेंड’ कहकर पूरा विश्व चमत्कृत होता रहा है। देश के एक करोड़ शिक्षकों, 30 करोड़ छात्र-छात्राओं और उनके अभिभावकों सहित शिक्षा-प्रशासन से जुड़े कुलपति से लेकर निचले स्तर तक के कर्मियों और शिक्षा क्षेत्र के समस्त हितधारकों (स्टेक होल्डर्स) पर अब यह कठिन दायित्व आ गया है कि इस नीति का अच्छे से अच्छा परिणाम लाने वाला क्रियान्वयन कैसे हो। शिक्षा नीति को जल्दी लागू किया जाना है। करना भी चाहिए, लेकिन यह जरूर याद रखना चाहिए कि जल्दी का मतलब जल्दबाजी नहीं होता। जल्दबाजी से हमें हर हाल में बचना होगा।

उम्मीद और शंकाएं शिक्षा नीति के विवेचन से स्पष्ट है कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, किफायती शिक्षा और सभी वर्गों की भागीदारी पर आधारित शिक्षा इस नीति का लक्ष्य है। सभी तक पहुंच और सबके प्रति जवाबदेही भविष्य की शिक्षा व्यवस्था के मूल आधार होंगे। शिक्षा में इस प्रकार का बदलाव समय की मांग है। राष्ट्रीय शिक्षा कन्क्लेव में जाहिर हुई प्रधानमंत्री की यह शंका निर्मूल नहीं है कि ‘इतना बड़ा सुधार कागजों पर तो कर दिया गया, लेकिन जमीन पर इसे कैसे उतारा जाएगा?’ इस समस्या के समाधान की ओर बढ़ने में सहायता मिलेगी, अगर हम प्रधानमंत्री के ही इस कथन को ध्यान में रखें कि ‘मकसद यह है कि देश की शिक्षा व्यवस्था आने वाली पीढ़ी को भविष्य के प्रति तैयार और सचेत रखे… हमें अपने विद्यार्थियों को ग्लोबल सिटिजन बनाना है।’

उन्होंने शिक्षा नीति को लागू करने के लिए इसका ‘रोडमैप’ और ‘टाइमलाइन’ तैयार करने का जो संदेश दिया है, वह संपूर्ण शिक्षा जगत के लिए एक बड़ी चुनौती है। इसके साथ जुड़े सवाल यह है कि आगे का रास्ता क्या हो, कैसा हो और कैसे यह सुनिश्चित किया जाए कि कोई भ्रम न रहे। इन सबके मद्देनजर केंद्र-राज्य संपर्क निकाय तथा टास्कफोर्स का गठन समय की मांग है। विश्व के प्रथम विश्वविद्यालय तक्षशिला और नालंदा की शैक्षिक व्यवस्था को आदर्श मानते हुए शिक्षा में जिस लचीलेपन की व्यवस्था इस नीति में प्रस्तावित है, वह विद्यार्थी-हित में है। कक्षा 10 की बोर्ड परीक्षाओं से मुक्ति, एक वर्ष, दो वर्ष और तीन वर्ष का पाठ्यक्रम पूरा कर क्रमश: सर्टिफिकेट, डिप्लोमा और डिग्री की व्यवस्था सर्वथा स्वागत योग्य है। भारतीय शिक्षा व्यवस्था में शैक्षणिक विचलन (ड्रॉप आउट) की समस्या का यह एक कारगर हल साबित होगी। बहुविषयी विश्वविद्यालयों की संकल्पना अभिनव है।

एक तरह से देखा जाए तो इस नीति को नई शिक्षा नीति कहना उचित नहीं होगा क्योंकि भारत की जो समुन्नत शिक्षा व्यवस्था और शिक्षा नीति सदियों से वैश्विक स्तर पर चर्चित और अनुकरणीय रही है, उसका समावेश इस नीति का मूल आधार है। इस शिक्षा नीति का अत्यंत महत्वपूर्ण प्रावधान है कि कक्षा पांच तक की शिक्षा मातृभाषा में दी जाएगी। दक्षिण के राज्यों ने नहीं बल्कि कुछ राजनेताओं ने इसका विरोध किया परंतु यह साफ होना चाहिए कि कुछ विषय राजनीतिक विवाद की चीज नहीं हो सकते। शिक्षा का विषय भी ऐसा ही है। मातृभाषा में शिक्षा व्यक्ति की प्रगति में बाधक नहीं हो सकती। अनेक उदाहरण हैं- प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद बिहार के गांव जीरादेई के प्राथमिक स्कूल से, पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा स्थापित वाराणसी के हरिश्चंद्र विद्यालय से और बाबासाहेब आंबेडकर सतारा (महाराष्ट्र) के प्राथमिक विद्यालय से क्षेत्रीय भाषाओं में ही प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण कर अपने-अपने क्षेत्र में शीर्ष पर पहुंचे। ऐसे कई और उदाहरण गिनाए जा सकते हैं, लेकिन मूल बात यही है कि मातृभाषा में प्रारंभिक शिक्षा के विरोध का कोई औचित्य या आधार नहीं हो सकता। जहां तक दक्षिण पर ‘हिंदी थोपने’ का आरोप है, यह आरोपकर्ताओं की नासमझी है। शिक्षा नीति में कहीं भी ऐसा कुछ है ही नहीं।

शिक्षानीति को राष्ट्रीय स्तर पर मूर्तरूप देने में राज्यों की महती भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। अत: राज्यों को इस प्रक्रिया में सक्रिय रूप से शामिल करने के लिए राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर शिक्षाविदों और नियामक अधिकारियों की एक टास्क फोर्स तथा जनसामान्य और राज्य सरकारों को इस नीति से अवगत कराने और फीडबैक प्राप्त करने के लिए ‘शिक्षानीति-संपर्क’ का तंत्र विकसित करना आवश्यक होगा। कोविड-19 ने साल 2020 को बुरी तरह झकझोर कर रख दिया है। शिक्षा तंत्र चरमरा रहा है। इसे संभालने के लिए वर्तमान में व्यापक और प्रभावी प्रयास तो हो रहे हैं पर शिक्षा नीति में भविष्य में इस प्रकार की आपदा के दौरान आपदा प्रबंधन के प्रयासों और योजनाओं पर और अधिक स्पष्ट नीति की अपेक्षा है।

पहले ऑनलाइन पाठ्यक्रम 20 प्रतिशत तक स्वीकार्य माने गये, जिसे बढ़ाकर 40 प्रतिशत कर दिया गया है। परंतु आपदा में शिक्षा की कौन सी प्रविधि प्रक्रिया मान्य होगी और तकनीकी की गांव-गांव उपलब्धता कैसे सुनिश्चित की जाएगी, जैसे प्रश्न अनुत्तरित नहीं रहने चाहिए। परीक्षाएं हों, न हों, किस प्रक्रिया से संपन्न हों, यह मामला कोविड काल में न्यायालय तक पहुंचा है। इस तरह के प्रश्नों का स्थायी समाधान भविष्य की दृष्टि से शिक्षा नीति में अपेक्षित है।

कसौटी पर सफलता प्राय: साढ़े तीन दशक बाद और छह वर्षों के कठिन प्रयत्नों से तैयार शिक्षा नीति की सफलता कसौटी पर है। ‘जल्दी, मगर जल्दबाजी नहीं’ के सूत्र के आधार पर इस नीति का रोडमैप तैयार करना होगा, ताकि जीएसटी की तरह कहीं इसमें भी आठ बड़े परिवर्तनों की आवश्यकता न पड़े। दो लाख से अधिक लोगों और संस्थाओं के फीडबैक के आधार पर तैयार इस नीति का रोडमैप तैयार करते समय इसके मूल पांच लक्ष्यों – गुणवत्ता, सर्वसमावेशी, भागीदारी, किफायत तथा जवाबदेही का ध्यान रखना होगा, तभी यह शिक्षा नीति यथार्थ के धरातल पर आकार लेगी और अपने ‘सर्वसमावेशी’ मौलिक स्वरूप के लक्ष्य से भटकेगी भी नहीं।

किंशुक पाठक
(लेखक स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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