प्रदूषण पर शोध तो लंबे समय से हो रहे हैं, लेकिन इसके कई पहलू अब भी नजरअंदाज हो रहे हैं। अब जल्द वही मौसम आ रहा है, जिसमें प्रदूषण और पराली का जलना फिर चर्चा में आ जाएगा और कई राज्य इसके नियंत्रण के त्वरित कदम उठाने लगेंगे। हमने हाल ही में सभी भारतीय राज्यों का एक अध्ययन किया है।
लैंसेट में प्रकाशित पेपर में प्रदूषण के अर्थव्यवस्था और जीवन व स्वास्थ्य पर असर को समझने की कोशिश की गई है। इसमें अध्ययन किया गया कि हर राज्य में प्रदूषण के कारण कितनी जानें जा रही हैं और जीडीपी को कितना नुकसान है। इसे प्रतिव्यक्ति (पर कैपिटा) के आधार पर मापा गया है।
जब तक यह नहीं समझा जाएगा कि प्रदूषण कितना नुकसान पहुंचा रहा है, नीति निर्माण में इसे प्राथमिकता नहीं मिलेगी। हर साल डेंगू की तरह प्रदूषण प्रभावित करता है, लेकिन इसपर लंबी अवधि के लिए जो काम करने की जरूरत है, वह नहीं हो पा रहा। राज्य अपने-अपने स्तर पर थोड़े-बहुत कदम उठाते हैं, जो पर्याप्य नहीं हैं। उदाहरण के लिए दिल्ली में ऑड-ईवन की व्यवस्था लागू की गई थी। दरअसल वायु प्रदूषण किसी एक राज्य की समस्या नहीं है। खासतौर पर पंजाब से लेकर पश्चिम बंगाल तक, गंगा के मैदानी इलाकों वाले राज्यों में प्रदूषण का बहुत ज्यादा असर हो रहा है।
देश में 2019 में करीब 17.8 फीसदी मौतें वायु प्रदूषण के कारण हुईं। यानी 16.7 लाख मौतें। इसमें ज्यादातर मौत एम्बिएंट पर्टीकुलेट मैटर (अभिकणीय पदार्थ यानी हवा में मौजूद कण) प्रदूषण से हुईं। भारत में 1990 से 2019 के बीच यह प्रदूषण 115.3% बढ़ा है। वहीं वायु प्रदूषण से जीडीपी को हो रहे नुकसान की बात करना भी जरूरी है। देश में 2019 में वायु प्रदूषण के कारण 36.8 बिलियन डॉलर का आर्थिक नुकसान हुआ।
यह जीडीपी का 1.36% है। प्रदूषण से हुए आर्थिक नुकसान के मामले में दिल्ली सबसे आगे है। यहां प्रतिव्यक्ति 62 डॉलर (करीब 4500 रुपए) का नुकसान हुआ। इसके बाद हरियाणा है, जहां प्रतिव्यक्ति आर्थिक नुकसान 53.8 डॉलर (करीब 3900 रु.) था। देश में वायु प्रदूषण से हर व्यक्ति को 26.5 डॉलर (करीब रु. 1900) का नुकसान हुआ।
प्रदूषण का सामना करने की जिम्मेदारी सिर्फ एक मंत्रालय पर नहीं छोड़ी जा सकती। यह सिर्फ कृषि मंत्रालय या पर्यावरण या स्वास्थ्य मंत्रालय की समस्या नहीं हो सकती। यह सभी राज्यों और सभी मंत्रायलों की समस्या है। उदाहरण के लिए किसान अलग-अलग कारणों से पराली जलाते हैं।
इसका नुकसान आर्थिक के साथ सामाजिक स्तर पर भी होता है। इसे गैरकानूनी बनाना भी समाधान नहीं है क्योंकि ऐसे नियम लाने का फायदा नहीं है, जिनका पालन न हो सके। इसलिए राज्यों के बीच भरपाई या पूर्ति की बात होती है, यानी एक राज्य को लाभ हो रहा है और दूसरे को प्रदूषण के कारण नुकसान तो इसकी भरपाई होनी चाहिए। जैसे राज्यों के बीच पानी साझा होता है, जब एक राज्य बांध बनाता है, तो दूसरे राज्य को परेशानी होने पर दोनों राज्यों के बीच बातचीत होती है, वैसे ही स्मॉग से प्रदूषण के मामले में होना चाहिए।
इसके लिए जीएसडटी काउंसिल की तर्ज पर एक काउंसिल बनानी चाहिए, जो एक समझौता करे कि इस नुकसान का उचित हर्जाना या कीमत क्या है। चूंकि वास्तविक कीमत नहीं पता, इसलिए जिसको पराली जलानी होती है, वह जला देता है। इसकी कीमत तो जनता को चुकानी पड़ती है। इसे रोकने के लिए तकनीकें आईं हैं, लेकिन वे इतनी महंगी हैं कि हर किसान इन्हें नहीं खरीद सकता। पर इनसे समस्या पूरी तरह नहीं सुलझेगी। इस समस्या के लिए हर साल शॉर्टकट नहीं चलेगा, बल्कि लंबी अवधि के समाधान सोचने होंगे।
इस तरह की आग के धुएं से हृदय संबंधी रोग बढ़ जाते हैं। आग वाले इलाकों के पास रहने वाले लोग ज्यादा प्रभावित होते हैं। अगर लगता है कि पंजाब में आग से नुकसान दिल्ली में ही होता है, तो ऐसा नहीं है। प्रदूषण से सबसे ज्यादा नुकसान आस-पास रहने वालों को ही होता है। पराली जलाने की यह समस्या सिर्फ पंजाब, उप्र तक सीमित नहीं है, बल्कि गंगा के मैदानी इलाकों के सभी राज्यों में फैल रही है। इसका समाधान खोजना अब एक इमरजेंसी हो गया है।
शामिका रवि
(लेखिका प्रधानमंत्री की इकोनॉमिक एडवाइजरी काउंसिल की पूर्व सदस्य हैं ये उनके निजी विचार हैं)