पॉलिमैथ और भारत

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आज तोताराम चिंतित था। वह जानता है कि चिंता से कुछ होने वाला नहीं है। वैसे भी उसकी चिंताएं रोटी-पानी की नहीं होती। उसे पता है कि रोटी-पानी उतने ही मिलेंगे जितनी पेंशन मिलेगी और पेंशन उतनी ही मिलेगी जितनी निर्मला सीतारामन चाहेंगी। प्याज भी तोताराम की चिंता का विषय नहीं है। बलात्कार से भी वह विशेष चिंतित नहीं क्योंकि जब से उत्तर प्रदेश के खाद्य एवं रसद और नागरिक आपूर्ति मंत्री रणवेंद्र प्रताप सिंह उर्फ़ धुन्नी सिंह ने अपनी ही ‘धुन’ में कहा कि सौ फीसदी क्राइम रोकने की गारंटी तो भगवान राम भी नहीं दे सकते। जब राम ही कोई गारंटी नहीं दे सकते तो राम के मंदिर और मूर्तियों तक सीमित रहने वालों से कोई बड़ी आशा करनी भी नहीं चाहिए।

तोताराम ने कहा- मास्टर, वैसे तो हम जगद्गुरु बने फिरते हैं लेकिन कितने दुःख की बात है कि हमारी 135 करोड़ की जनसंख्या में एक भी पॉलिमैथ नहीं है।

हमने समझाया- चिंता की कोई बात नहीं है। जिस प्रकार हमारे यहां पॉलिटिकल साइंस को संक्षेप में ‘पोल साइंस’ कहा जाता है जिसके टिकट वितरण, प्रचार, खरीद-फरोख्त, दल-बदल, सीबीआई की रेड और क्लीन चिट, रात में गुपचुप सरकार बना लेना आदि सब में पोल ही पोल है। इसी तरह इस ‘मैथ’ में भी पोल की क्या कमी है। काले धन को समाप्त करने के लिए नोटबंदी की और सब नोट वापिस आ गए मतलब काला धन समाप्त। अब पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था का शगूफा छोड़ा गया है तो वह आंकड़ों और मैथ की पोल के द्वारा पूरा कर ही लिया जाएगा जैसे कि रवि शंकर जी के हिसाब से मंदी नहीं है।

हमारे पैर पकड़ते हुए तोताराम ने निवेदन किया- प्रभु, किसी और की भी सुना करो। कोई बात समझ में न आए या किसी शब्द का अर्थ पता नहीं हो तो पूछ लिया कर। पूछने के शर्म करने वाला जीवन भर अज्ञानी बना रहता है। केवल अकड़ से कुछ नहीं होता। तेरा हाल तो बीजेपी के संबित पात्रा और कांग्रेस के गोपी बल्लभ जैसा है। दोनों ही बहस कर रहे हैं लेकिन किसी को पता नहीं कि ट्रिलियन में कितने जीरो लगते हैं?

‘पॉलिमैथ’ ग्रीक भाषा से बना एक शब्द है जिसका अर्थ होता है-‘वह व्यक्ति को ज्ञान में कई क्षेत्रों में विशेषज्ञता रखता हो’। हिंदी में इसे ‘बहुज्ञ’ कह सकते हैं। इसी साल छपकर आई वक़ास अहमद की किताब ‘द पॉलिमैथ’ में इस विषय पर विस्तार से विचार किया गया है। वकास अहमद का करियर कई क्षेत्रों में फैला रहा है। वे अर्थशास्त्र में ग्रेजुएट हैं, अंतरराष्ट्रीय संबंध और न्यूरो साइंस में उनके पास मास्टर्स डिग्री है। वे राजनयिक पत्रकार और निजी प्रशिक्षक का काम कर चुके हैं। इन दिनों वे दुनिया के सबसे बड़े कला संग्रहों में से एक के निर्देशक हैं और पेशेवर कलाकार का भी काम करते हैं।

‘द पॉलिमैथ’ किताब के लेखक वक़ास अहमद

इन उपलब्धियों के बावजूद अहमद ख़ुद को पॉलिमैथ नहीं मानते। पॉलिमैथ की उनकी सूची में सिर्फ़ वही शामिल हैं जिन्होंने कम से कम तीन क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दिया हो। उनकी सूची में शामिल हैं लियोनार्डो दा विंची (कलाकार, आविष्कारक और शरीर विज्ञानी), योहान वुल्फगांग फान गेटे (महान लेखक जिन्होंने जीव विज्ञान, भौतिकी और खनिज विज्ञान का अध्ययन किया) और फ़्लोरेंस नाइटिंगल (आधुनिक नर्सिंग की संस्थापक, सांख्यिकीविद और धर्मविज्ञानी)।

हमने कहा- या तो इस आदमी को भारत और उसके नेताओं की महानता के बारे में कुछ पता नहीं है या फिर यह मुसलमान होने के कारण ईर्ष्यावश भारत की महान प्रतिभाओं के महत्त्व को नकार रहा है। चल और तो छोड़ दे लेकिन क्या गांधी और नेहरू भी तेरे इस पॉलिमैथ में नहीं आते?

बोला- उनकी भली कही। गांधी के पास क्या था? सत्य और अहिंसा। ये भी दो क्या एक ही समझ। कहीं ऐसे दुनिया चलती है? तभी तो चर्चिल ले भगा नोबल और तेरे गांधी देखते रह गए। और नेहरू करता रहा पंचशील, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और चाऊ एन लाइ ने ‘लाइ’ बोलकर दे दिया चरका।

हमने कहा- तो क्या तू मोदी जी को भी ‘पॉलिमैथ’ नहीं मानेगा? उनकी बहुज्ञता देख कि शी जिन पिंग बार-बार भागे चले आते हैं कभी झूला झूलने, कभी नौका विहार करने तो कभी चाय पीने। ट्रंप झप्पी के लिए तरसते रहते हैं।

बोला- ये सब तो ज्ञान के एक ही क्षेत्र के उपभाग हैं। अभिनय में रोना-गाना, नव रस, झूठ, चालाकी, बनावट, चुटकलेबाजी सभी कुछ आ जाते हैं। ऐसे ही कहने को 64 के हैं लेकिन कला को एक ही फेकल्टी तो माना जाएगा।

हमने कहा- तो हमारे एक मंत्री जी है जो राजनीति करने के अतिरिक्त बत्तखों के पंखों से ऑक्सिजन निकालने का विज्ञान जानते हैं और महाभारत में इंटरनेट ढूंढ़ लेते तो क्या वे पॉलिमैथ नहीं हैं? एक और मंत्री जी हैं जो पुलिस में रहे हैं, अतः अपराध विज्ञान के बारे में जानते हैं, खुद को डार्विन के सिद्धांत से परे मानकर डार्विन को झूठा सिद्ध कर चुके हैं और उनके पास रसायन विज्ञान की डिग्री तो है ही। मैंने तो एक उदाहरण मात्र दिया है अन्यथा अपने देश में तो गली-गली में ज्ञान के गट्ठर बंधे पड़े हैं जिनका पूरी तरह से विमोचन ही नहीं हुआ है। बोला- लगता है एक दो-चार चुनाव और जीत जाने के बाद तो शायद ज्ञान-विज्ञान के किसी संस्थान की ही कोई ज़रूरत नहीं रहेगी। सब कुछ वेद-पुराणों से ही निकाल लेंगे।

रमेश जोशी
लेखक देश के वरिष्ठ व्यंग्यकार और ‘विश्वा’ (अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति, अमरीका) के संपादक हैं। ये उनके निजी विचार हैं। मोबाइल – 9460155700
blog – jhoothasach.blogspot.com
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