वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण का बजट-भाषण काफी प्रभावशाली था। वे अंग्रेजी में बोलीं, जिसे देश के बहुत कम लोगों ने समझा होगा। जो लोग अंग्रेजी समझते हैं, वे कौन लोग हैं ? शहरी हैं, ऊंची जात हैं, पैसे वाले हैं। वे लोग समझ ही नहीं पा रहे हैं कि वे क्या करें ? बजट की तारीफ करें, निंदा करें या चुप रहें या अंदर ही अंदर घुटते जाएं।
उन अंग्रेजीदां लोगों के लिए बजट में कोई खुश करने वाली खास बात नहीं हैं। न तो उनका आयकर घटा, न उन्हें शिक्षा या इलाज की कोई सुविधा मिली। हॉ, विदेशों से आनेवाली किताबो और अखबारी कागज पर टैक्स जरुर बढ़ा दिया गया। उन्हें यह भी आश्चर्य हो रहा है कि यह देश का ऐसा पहला बजट है, जिसकी कुल राशि का कोई पता ही नहीं है। सरकार की आमदनी का अंदाज क्या है और खर्च का अंदाज क्या है, कौन जानता है?
सरकार ने 2 करोड़ मकान, किसानों और छोटे व्यापारियों को पेंशन व कर्ज, महिलाओं को विशेष सुविधाएं देने की घोषणा तो कर दी लेकिन इतना पैसा कहां से आएगा, यह नहीं बताया। सवाल ऐसा है कि दिल्ली में तो रहेंगे, मगर खाएंगे क्या? हर घर में नल का जल पहुंचेगा, शौचालय बनेगा, बिजली की रोशनी पहुंचेगी, गांवों और शहरों में सड़कें बनेंगी, इस तरह के वादो की भी कहीं वही दशा न हो जाए, यह डर लगता है।
बजट-भाषण सुनने के बाद ऐसा लगा कि यह साल भर का बजट तो है लेकिन उससे भी ज्यादा यह सरकार का संकल्प पत्र है। अब तक के बजटों में वित्तमंत्री लोग जो आंकड़ों का तिलिस्म खड़ा करते थे, उसकी जगह निर्मला सीतारमण ने वादों का तिलिस्म खड़ा कर दिया है। इसमें कोई बुराई नहीं है लेकिन असली सवाल यह है कि आप उन्हें अमली जामा कैसे पहनाएंगे ? आपकी सरकार पूरी तरह से नौकरशाही पर निर्भर है। दिमागी तौर पर और जमीनी तौर पर भी।
आप लाख दावे करते रहें कि आप दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी हैं। आपके पास करोड़ों कार्यकर्त्ता हैं लेकिन वे कार्यकर्त्ता किस काम के हैं ? यदि ये कार्यकर्त्ता सक्रिय होते तो आज देश जिस आर्थिक संकट में फंसा हुआ है, वैसा कभी फंसा होता ? न रोजगार बढ़ा, न आम आदमी की आमदनी बढ़ी, न लोगों को शिक्षा और चिकित्सा में विशेष राहत मिली। तो फिर आप इस अर्थ-व्यवस्था को ढाई ट्रिलियन से पांच ट्रिलियन भी कर देंगे तो क्या होगा ? जब तक खेती फायदे का धंधा नहीं बनती, जब तक हर नौजवान को रोजगार नहीं मिलता, जब तक हर बच्चा शिक्षित नहीं होता और उसे समुचित पोषण नहीं मिलता, जब तक इलाज के अभाव में लोग को दम तोड़न पड़ता है, तब तक पांच ट्रिलियन वाली अर्थ-व्यवस्था का कोई अर्थ नहीं है।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं…