भगवान गौतम बुद्ध उस समय वैशाली में थे। उनके धर्मोपदेश जनता बड़े ध्यान से सुनती और अपने आचरण में उतारने का प्रयास करती थी। बुद्ध का विशाल शिष्य वर्ग भी उनके वचनों को यथासंभव अधिकाधिक लोगों तक पहुंचाने के सत्कार्य में लगा हुआ था। एक दिन बुद्ध के शिष्यों का एक समूह घूम-घूमकर उनके उपदेशों का प्रचार कर रहा था कि मार्ग में भूख से तड़पता एक भिखारी दिखाई दिया।
उसे देखकर बुद्ध के एक शिष्य ने उसके पास जाकर कहा- अरे मूर्ख! इस तरह क्यों तड़प रहा है? तुझे पता नहीं कि तेरे नगर में भगवान बुद्ध पधारे हुए हैं। तू उनके पास चल, उनके उपदेश सुनकर तुझे शांति मिलेगी। भिखारी भूख सहन करते-करते इतना शक्तिहीन हो चुका था कि वह चलने में भी असमर्थ था।
सायंकाल उस शिष्य ने तथागत को इस प्रसंग से अवगत कराया। तब बुद्ध स्वयं भिखारी के पास पहुंचे और उसे भरपेट भोजन करवाया। जब भिखारी तृप्त हो गया तो वह सुख की नींद सो गया। शिष्य ने आश्चर्यचकित हो पूछा- भगवन्! आपने इस मूर्ख को उपदेश तो दिया ही नहीं, बल्कि भोजन करा दिया। भगवान बुद्ध मुस्कराकर बोले- वह कई दिनों से भूखा था। इस समय भरपेट भोजन कराना ही उसके लिए सबसे बड़ा उपदेश है। भूख से तड़पता मनुष्य भला धर्म के मर्म को क्या समझेगा?
कथा का सार यह है कि प्रत्येक सिद्धांत अथवा सर्वस्वीकृत आचरण सभी परिस्थितियों में लागू नहीं होता। परिस्थिति के अनुसार उसका पालन, अपालन या परिवर्तन मान्य किया जाना ही श्रेष्ठ आचरण है।