‘ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर’

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यदि हम अमेरिका का साथ लेते हैं तो हमें आधुनिकतम तकनीकें मिलने की आशा है। बीते वर्ष अमेरिका ने वर्ल्ड इंटलेक्चुअल प्रॉपर्टी ऑर्गनाइजेशन में 58 हजार पेटेंट की अर्जियां दाखिल कीं जबकि चीन ने 59 हजार। हालांकि ऐतिहासिक दृष्टि से अमेरिका नई तकनीकों के सृजन में अग्रणी रहा है। मौजूदा स्थिति में यदि हम चीन के साथ सहयोग करते हैं तो कुछ तकनीकें तो मिल ही सकती हैं, क्योंकि नई अर्जियां दाखिल करने में चीन अमेरिका से आगे निकल चुका है। इसके अतिरिक्त चीन की विशेषता मैन्युफैक्चरिंग में है और हमारी सेवा क्षेत्र जैसे मेडिकल ट्रांस्क्रिप्शन, अनुवाद, सिनेमा इत्यादि में। ऐसे में चीन की मैन्युफैक्चरिंग और भारत के सेवा क्षेत्र के योग से हम विश्व में अपनी पैठ बना सकते हैं। सौ साल में 26 युद्ध आज वित्तीय दृष्टि से चीन भारी पड़ता है। अमेरिकी सरकार द्वारा जारी ट्रेजरी बांड उसने भारी मात्रा में खरीद रखे हैं। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय व्यवस्था में चीन का सूर्योदय हो रहा है तो अमेरिका का सूर्यास्त। चीन को अपना दोस्त मानने में सबसे बड़ी समस्या भारत और चीन के साथ ऐतिहासिक मुद्दों की है। लेकिन इस पर सही दृष्टिकोण अपनाने के लिए हमें देखना चाहिए कि पिछले 100 वर्षों में चीन ने कितने युद्ध किए हैं और अमेरिका ने कितने? दोनों विश्वयुद्धों को छोड़ दें तो अमेरिका का रेकॉर्ड इस प्रकार है- 1912 में अमेरिका ने निकारागुआ पर कब्जा किया, 1915 में हेटी पर, 1916 में डोमिनिकन रिपब्लिक पर, 1950 में कोरिया युद्ध में शामिल हुआ, 1953 में लाओस में युद्ध किया, 1958 में लेबनान में, 1961 में क्यूबा पर असफल आक्रमण किया, 1965 में दक्षिणी वियतनाम में प्रवेश किया, 1965 में डोमिनिकन रिपब्लिक में, 1967 में कंबोडिया में, 1983 में ग्रेनेडा में, 1986 में लीबिया में, 1989 में पनामा में, 1990 में कुवैत में, 1992 में सोमालिया और बोस्निया में, 1994 में हेटी में, 1998 में कोसोवो में, 2001 में अफगानिस्तान में, 2003 में इराक में, 2007 में सोमालिया में, 2011 में पुनः लीबिया और युगांडा में, 2014 में सीरिया में और 2015 में यमन तथा लीबिया में।

इस लेख की सीमा में इन तमाम युद्धों के औचित्य पर विचार करना संभव नहीं है परंतु मैं दक्षिणी अमेरिका के लोगों को जानता हूं, जो मानते हैं कि अमेरिका ने उनके देशों में अमेरिका विरोधी शासकों को हटाने के लिए युद्ध किए थे। इस लिस्ट के बरक्स चीन ने 1950 में तिब्बत पर कब्जा किया, 1950 में ही कोरिया में प्रवेश किया, 1959 में वियतनाम से युद्ध किया, 1962 में भारत से युद्ध हुआ, 1969 में रूस से सीमा का विवाद हुआ और 1979 में वियतनाम से युद्ध किया। पिछले 100 वर्षों में अमेरिका ने लगभग 26 युद्ध किए हैं और सभी युद्ध अमेरिका के अपने भूमिखंड से दूर हुए हैं। हालांकि मेक्सिको से सीमा को लेकर हल्के-फुल्के विवाद भी बीच में हुए थे। इसकी तुलना में चीन ने अपनी सरहद के आसपास के देशों से ही युद्ध किया है और यदि तिब्बत को छोड़ दें तो किसी दूसरे देश की भूमि पर कब्जा नहीं किया है। 1962 में भारत से युद्ध करके पुनः चीन पीछे हटा, 1969 में रूस से सरहद का विवाद सुलझ गया और 1979 में वियतनाम से युद्ध करके 1991 में सरहद को निर्धारित कर दिया गया। स्पष्ट है कि अमेरिका ने लगभग 25 युद्ध संपूर्ण विश्व में अपने भूमिखंड से दूर जाकर किए हैं, जबकि चीन ने कुल 6 युद्ध अपनी सरहद से सटे हुए इलाकों में किए हैं। तिब्बत पर 1600 से 1912 तक चीन का राजनीतिक प्रभुत्व था। 1912 से वह देश स्वतंत्र था। इसलिए तिब्बत के विवाद पर किसी का रुख इस बात पर निर्भर करता है कि वह 1912 के पहले के 300 वर्षो को महत्व देगा या 1912 के पहले के 50 वर्षों को। मैं चीन के तिब्बत पर कब्जे का समर्थन नहीं कर रहा हूं लेकिन हमको एतिहासिक तथ्यों का संज्ञान तो लेना ही होगा।

1962 के युद्ध की बात करें तो नेविल मैक्सवेल ने ‘इंडियाज चाइना वार’ नामक पुस्तक में लिखा था कि उस युद्ध के जनक भारत के रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन थे जिन्होंने ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’ लागू कर विवादित क्षेत्र में आगे बढ़ने का प्रयास किया था। तीन बातें स्पष्ट हैं। पहली यह कि तकनीक के क्षेत्र में अमेरिका और चीन लगभग बराबर हैं। दूसरी यह कि अमेरिका की वित्तीय व्यवस्था ढलने लगी है। तीसरी यह कि अमेरिका ने 25 युद्ध अपनी सरहद से बाहर किए हैं जबकि चीन ने 6 युद्ध अपनी सीमा पर किए हैं। इस परिस्थिति में ठंडे दिमाग से सोचना चाहिए कि हम किसका साथ दें। यहां पर हमें जर्मनी और फ्रांस से सबक लेना चाहिए। द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी ने फ्रांस पर सीधे कब्जा किया था। फिर भी आज ये दोनों देश यूरोपियन यूनियन में बराबर के सदस्य हैं। अतः हमें भविष्य को देखना चाहिए। वर्तमान में अमेरिका का सहयोग देने के चक्कर में हमने ईरान से अलगाव कर लिया है और दूसरे देशों से महंगा तेल खरीदने को मजबूर हैं। सवाल देश का बावजूद इसके, हमें अमेरिका द्वारा किए गए उपकारों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए। द्वितीय विश्व युद्ध के समय जब इंग्लैंड के प्रधान मंत्री विंस्टन चर्चिल ने अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट से सहयोग मांगा था तो रूजवेल्ट ने शर्त रखी थी कि वे अपने उपनिवेशों को स्वतंत्रता देंगे, जिसको चर्चिल ने भारी मन से स्वीकार किया था। इसके बाद 1964 में जब भारत में भयंकर अकाल पड़ा तब अमेरिका ने भारत को भारी मात्रा में मुफ्त अनाज भी उपलब्ध कराया था। मैंने स्वयं अमेरिका में शिक्षा पाई है और इसके लिए उस देश को धन्यवाद देता हूं। परंतु आज विषय व्यक्तिगत नहीं है बल्कि देश का है। इसलिए हमें परिस्थतियों का नया मूल्यांकन करना होगा। ‘ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर’ के फार्मूले पर विचार करना होगा।

भरत झुनझुनवाला
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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