सर्व शक्तिमान परमात्मा की व्याख्या गुरु नानक ने ‘इक ओंकार’ के रुप में ही है। वह जो एक है, सत्य है, भर और वैर से रहित है, अजन्मा है, स्वयं भू है, वह स्वयं ही सृष्टा है और सृष्टि भी। वह निराकार अपनी सर्जना में ही समाहित है, अत: सृष्टि के जीवों में अलगाव का कोई कारण ही नहीं उपस्थित होता। वह सर्वोच्च सत्ता सत्य-स्वरूप ही है, अत: उसे बाहरी दिखावटी कर्मकांडों से नहीं, अपितु सत्य व्यवहार से ही प्राप्त किया जा सकता है। सच्चे दिल से नाम सुमिरन करके ईश्वर प्राप्ति की प्रेरणा गुरु नानक जी ने दी।दरअसल गुरु नानक ने ईश्वर को प्रकृति में देखा। उन्होंने धरती की हरीतिमा और स्वच्छ वातावरण की अपने उपदेशों में चर्चा की। उन्हें पर्यावरण की बड़ी चिंता थी। उन्होंने मनुष्य को प्रकृति से प्रेम करना सिखाया। सुखमय और निरोगी जीवन जीने के लिए उन्होंने प्राकृतिक स्रोतों के संरक्षण की बात की। उन्होंने पवन को गुरु, पानी को पिता एवं धरती को माता का दर्जा देते हुए उनकी सेवा, संभाल एवं संरक्षण का संदेश और आदेश किया। गुरु नानक की दृष्टि ‘सर्वधर्म समभाव’ एवं विश्वक ल्याण की रही है।
उन्होंने प्राणी को जीवन, जगत एवं ब्रह्म के सत्य से परिचित करवाया। उनसे एक बार पूछा गया कि हिन्दू बड़ा है या मुसलमान तो उन्होंने कहा कि आदमी अपने अच्छे कार्यों से बड़ा होता है, न कि किसी जाति या धर्म विशेष में जन्म लेने से। ‘विश्व बंधुत्व’ के संकल्प पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि हम सब एक पिता की संतान हैं, सभी के हृदय में उसी एक ब्रह्म का निवास है। उन्होंने कभी भी मनुष्यों में जाति, धर्म, वर्ण, रंग, कुल आदि के कारण विभेद नहीं माना, अपितु उनके सद्गुणों और सत्य आचरण को महत्व दिया। गुरु नानक इस सिद्धांत के प्रतिपादक थे कि मनुष्य के लिए जाति-धर्म, अमीरी-गरीबी, सवर्ण-अवर्ण कोई कसौटी नहीं, आत्मा की पवित्रता के लिए आवश्यक है कि उसकी मान्यता, आस्था, विश्वास एक ईश्वर में हो और वह सभी मनुष्यों को एक समान समझे। गुरु नानक जी ने पांच शताब्दी पहले देश-विदेश की चारों दिशाओं में चार बड़ी यात्राएं करके बड़े ही प्रभावपूर्ण तरीके से ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का संदेश प्रसारित किया था। उनका कहना था कि ‘एक स के हम बारिक ’ यानी हम सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं। गुरु नानक देव जी का यह विश्वास रहा कि सदाचार के आचरण से मनुष्य ईश्वर की निकटता प्राप्त कर सकता है।
उन्होंने मनुष्य को दुराचरण एवं दुर्व्यवहार से बचाने तथा उसे सदाचारी और सकारात्मक सोचवाला इंसान बनाने की भूमिका का निर्वाह किया। सत्य आचरण से परिपूर्ण जीवन ही ईश्वर को जानने-समझने का सारतत्व है और उसकी प्राप्ति होती है उच्च आध्यात्मिक विचारोंवाले लोगों की संगति से। गुरु नानक नैतिक मूल्यों का उत्थान करना चाहते थे। उनका कथन था कि मानव जीवन अनमोल है। इसे प्रेम एवं मानवता की सेवा में खर्च करना चाहिए। उनकी दृष्टि में मानव सेवा ही ईश्वर की सेवा है। ईश्वर की आराधना के साथ गुरु नानक ने मानवता की सेवा को महत्वपूर्ण बताते हुए बांट कर खाने के सिद्धांत का प्रतिपादन किया, इसके लिए उन्होंने अपने हाथों से मेहनत कर ईमानदारी की कमाई करने को इसका आधार बताया। इस प्रकार गुरु नानक ने ‘नाम जपना, किरत करनी, वंड छकना’ (नाम सुमिरन, श्रम करके अर्जित जीविका और बांट कर खाना) को सिख मत के मूल सिद्धांत के रूप में स्थापित कि या। गुरु नानक ने भक्ति भाव के साथ-साथ मेहनत कर आजीविका कमाने को भी धार्मिक शिक्षा का एक अंग बनाया।
उन्होंने स्वयं भी सुल्तानपुर लोधी प्रवास के दौरान नवाब के शाही भंडार गृह (मोदीखाना) में काम कि या और करतारपुर रहते हुए एक किसान की भांति खेती- बाड़ी भी की। गुरु नानक ने उस समय की प्रचलित रूढिय़ों,
अंधविश्वासों का विरोध करते हुए सत्य-शाश्वत परंपराओं को प्रश्रय दिया तथा उन्हें नए अर्थों से परिपूर्ण बनाया। उन्होंने धर्म के नाम पर फै ले वाह्वछल और पाखंड के खिलाफ संघर्ष किया। उन्होंने कई प्रकार की धार्मिक -सामाजिक कुरीतियों, अनावश्यक कर्मकांडों और अर्थ खो चुके प्रतीकों के बहिष्कार का आह्वान किया। मध्य युग में गुरु नानक पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने नारी के महिमामयी व्यक्ति त्व को अभिव्यक्त कर मानव समाज को नवप्रकाश दिया। उन्होंने कहीं भी, कभी भी स्त्री की निंदा नहीं की, अपितु उसे महापुरुषों, राजाओं, और पैगंबरों की जननी बताते हुए जीवन के हर मोड़ पर उसकी महत्ता का वर्णन किया।
उन्होंने समाज में नारी की समानता एवं उसे समान अधिकार देने पर बल देते हुए उसके बड़प्पन को अपने जीवन, व्यवहार एवं काव्य में चरितार्थ किया। गुरु नानक की मधुरभाषा, सहज वार्तालाप का ढंग, सद्विचार, प्रभु के प्रति निष्ठा और निष्पक्षता के कारण लोगों के मन में उनके प्रति श्रद्धा और सम्मान की भावना पैदा हो गई थी। उनके कोमल व्यवहार में कुछ ऐसा खिंचाव था, जिसे देखकर हिंदू, मुसलमान तथा अन्य धर्मावलंबी भी गुरु नानक की ओर आकृष्ट हुए, क्योंकि उन्होंने सत्य व प्रेम पर आधारित, सबकी समझ में आनेवाले धर्म की बात कही तथा किसी समुदाय विशेष के लिए अपने उपदेशों को सीमित नहीं रखा। उनके उपदेश सुन कर लोगों में जीवन को नए ढंग से समझने की दृष्टि पैदा हुई, उनकी सोच में बदलाव आया, उनमें आत्मबोध उत्पन्न हुआ, जो अंतत: उनमें ईश्वरीय चेतना के जागरण में सहायक सिद्ध हुआ।
हरजिंदर सिंह सेठी
(लेखक स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)