दाल, खून पसीना

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तोताराम कल नहीं आया। आज आया तो उसके हाथ में एक छोटी डोलची जैसा कोई बर्तन था। वैसे तो आम दिनों में तोताराम हमेशा तू-तड़ाक से बात करता है जैसे कि चुनाव प्रचार में नाता लोग, लेकिन तोताराम की तू-तड़ाक में नेताओं वाली द्वेषपूर्ण कुटिलता नहीं होती। शुद्ध प्रेमपूर्ण अनौपचारिकता। जब वह राष्ट्रीय लहजे में देववाणी में बोलने -परमआदरणीय भ्राता श्री, कल न आ पाने के लिए क्षमाप्रर्थी हूं। हुआ यू कि हमने गरमी से घबराकर मोदीजी के शपथ-ग्रहण समारोह में जाने का कार्यक्रम निरस्त तक दिया था लेकिन मैंने सोचा-कोई बात नहीं, न जाकर अच्छा ही किया। आज पढ़ा कि कल अपने यहां का पारा 50 डिग्री को छू गया था।

मर जाते तो कौन बीमा का पैसा मिलना था। ऊपर से पेंशन और आधी हो जाती। लेकिन मन किया की यह महान दिवस, शालीन लोकतंत्र की यह उपलब्धि ऐसे ही सूखी तो नहीं जानी चाहिए। सो पिछले दो दिन से आपके लिए, तवे पर कुकर रखे-रखे बनी है। आधा सिलेंडर गैस खर्च हो गई। अन्य सब समान अलग से। हमने कहा – तोताराम हम शोषक नहीं हैं, जनता के पैसे से ऐश करने वाले नेता भी नहीं हैं। हम खुद अपने खून-पसीने की खाने वाले हैं। हम हमे तेरी ये खून-पसीना दाल नहीं खा सकते। बोला- भाई साहब वास्तव में तो यह दाल, ‘शपथ ग्रहण समारोह’ में पधारे मेहमानों के लिए बनी ‘दाल रायसीना’ तो इसलिए कही है कि यह ईमानदारी के पैसे बनी है।

‘दाल रायसीना’ की तरह जनता के टैक्स के पैसे पर दंड नहीं पेले हैं। हमने कहा-रायसीना में वायसराय सीना तानकर बैठते थे। यहां कौन वायसराय बैठा है? सीना तानना तो दूर, गर्दन झुकाकर भी बुढ़ापा कट जाए तो गनीमत है। बोला- आपने ‘कहा जोशीकविराय’ के नाम से हजारों कुण्डलियां छंद लिखे हैं तो हम किस वायसया से कम है? और हमें कौन सीना तानने से कौन रोक सकता है? हम किसी नेता के बल पर जनता को अकड़ दिखाने वाले गुंडे नहीं है। हम अपनी खून-पसीने की कमाई को खाने वाले स्वाभिमानी, पेंशनयाफ्ता राष्ट्रनिर्माता हैं। हमने दाल चखी और स्पष्ट उत्तर दिया-बड़ा अजीब-सा स्वाद और गंध भी अजीब। लगता बुस गई है।

रमेश जोशी
लेखक व्यंगकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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