तुष्टिकरण की राजनीति के जनक गांधीजी

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भले ही यह कहा जाए कि अंग्रेजों ने फूट डालो और राजतीति करो की नीति पर कार्य किया। जिस कारण से देश का विभाजन हुआ और सामाजिक संरचना को साम्प्रदायिकता ने विषाक्त कर दिया। पर, यह पूर्ण सत्य नहीं है। अंग्रेज विदेशी थे, भारत उनके लिए आराध्य भूमि नहीं थी, यह प्राचीन राष्ट्र उनके लिए केवल एक उपनिवेश था। यदि वे कुछ कर रहे थे, तो उसमें उनके देश के व्यापक हित निहित थे। सवाल विदेशी साम्राज्यवादी शक्तियों से करना उचित नहीं है, सवाल अपने नेताओं से है जो आजादी के संघर्ष के कालखंड में भारतीय समाज को हिंदू और मुस्लिम के चश्मे से देख रहे थे और परस्पर अविश्वास तथा कटुता को बल प्रदान कर रहे थे। विभिन्न समुदायों को एक करने का प्रयास तनिक भी नहीं किया गया, बल्कि उन विषयों को हवा देने में तत्कालीन राजनेता लग गए जिससे दोनों वर्गों के मध्य खाई और अधिक गहरी होती चली गई। यह ठीक है कि पाकिस्तान की मांग को जिन्न्नाह ने उठाया था। लेकिन इस मांग को सत्यापित करने का काम कांग्रेस कर रही थी।

2 अगस्त 1942 को कांग्रेस राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने एक प्रस्ताव पारित किया था जिसमें कहा गया था कि कांग्रेस इस बात की कल्पना तक नहीं कर सक ती कि वह किसी क्षेत्र विशेष को उसकी इच्छा के विपरीत भारत संघ में सम्मिलित करे। यह प्रस्ताव जिन्नाह की मांग का अनुमोदन था। कांग्रेसी नेता इस प्रस्ताव को पारित कर यह नहीं समझ पा रहे थे कि वे अपनी मातृभूमि और यहां के नागरिकों के साथ कितना बड़ा अन्याय कर रहे हैं। आगे भी कांग्रेस की नीति पाकिस्तान की मांग को लेकर बहुत कमजोर तथा तुष्टि रणवादी रही। 10 नवम्बर 1946 को गांधीजी नोआखली के गांव दत्तपाड़ा गए थे। वहां उन्होंने अपने भाषण में कहा था कि मैं पाकिस्तान का विरोध करने के लिए यहां नहीं आया हूं। यदि देश को खंडित होना ही भाग्य में है, तो उसे रोकने की सामथ्र्य मुझ में नहीं है। हरिजन सेवक अंक दिसम्बर 1, 1946 गांधीजी उस समय सम्पूर्ण भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, उनकी आवाज को देश की आवाज माना जा रहा था, ऐसे में, उनका यह भाषण राष्ट्रीय एकता के संकल्पों में निर्बलता को प्रकट करता है और जिन्नाह को प्रोत्साहित करता है।

तुष्टिकरण की पराकाष्ठा यहां तक पहुंच चुकी थी कि वे मौलाना मुहह्यमद अली के कहने पर अफगानिस्तान के अमीर को एक तार भी लिख चुके थे जिसमें उसे भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया गया था। अपनी इस सोच को उन्होंने गर्व के साथ सही सिद्घ करने का प्रयास भी किया यंग इंडिया अंक मई 4, 1921, हिंदू-मुस्लिम एकता की आधारहीन नीति-रीति में जीने वाली कांग्रेस भेद दूर करने के बजाय उन तत्वों को संरक्षित करने में लग गईए जो अपने मानसिक विचलन के रोग के कारण समाज की एक रसता को भंग कर रहे थे। बात सन 1923 में आयोजित कांग्रेस के दिल्ली अधिवेशन की है। यह विशेष अधिवेशन हिंदू-मुस्लिम एकता के नाम पर आमंत्रित किया गया था। लेकिन इसमें जो प्रस्ताव पारित किए गए, वे धार्मिक घृणा तथा संकीर्णता पालने वाले तत्वों को प्रोत्साहित करते हैं। विविधतापूर्ण संस्कृति की स्वीकार्यता के प्रति उन प्रस्तावों में नकारात्मक दृष्टि है जो इसके पश्चात पाकिस्तान निर्माण की मानसिकता को विकसित करने में सहयोगी रही।

इंडियन नेशनल पैक्ट के नाम से प्रसिद्घ इस प्रस्ताव में बहुसंख्यक वर्ग को यह निर्देश दिया गया कि वह मस्जिद के आस-पास किसी प्रकार का भी वाद्य यंत्र न बजाए। लेकिन अल्पसंगयकों को धार्मिक पर्व पर गोहत्या करने की छूट दी गई। इस साल दिसंबर माह में कांग्रेसी नेता सीआर दास ने बंगाल पैक्ट तैयार किया जिसमें कहा गया था कि मुसलमानों को गोहत्या का पूर्ण अधिकार मिलना चाहिएए मस्जिदों के आगे किसी भी समय किसी प्रकार का कोई वाद्य यंत्र न बजाया जाए, साथ ही शासकीय सेवाओं में उनको 55 प्रतिशत स्थान आरक्षित किए जाएं। कांग्रेसी धर्मनिरपेक्षता के घातक परिणाम, शिव कुमार गोयल पेज 39, आजादी से पहले कई राज्यों में कांग्रेस की सरकारे थी। वर्तमान उत्तर प्रदेश जिसे पहले संयुक्त प्रांत कहा जाता था, वहां भी कांग्रेस की सरकारें रही हैं। सन 1946 में प्रयागराज में दशहरे के अवसर पर परम्परागत शोभायात्रा को निकालने की अनुमति नहीं दी गई थी। उस समय प्रदेश के मुख्यमंत्री पंत थे। सरकार का तर्क था कि शोभा यात्रा के मार्ग में कुछ भवन मुस्लिम लीग समर्थकों के हैं, उनको आपत्ति हो सकती है।

इस प्रकरण में धार्मिक जड़वादी तत्वों को शासन द्वारा संरक्षित किया गया और उस वर्ग के धार्मिक अधिकारों का हनन हुआ, जो अपनी परम्पराओं को निर्वाह करने की अनुमति शासन से मांग रही थी, इस प्रकरण का यह दुखद पक्ष यह भी रहा कि दशहरा की शोभायात्रा के समर्थकों को ही जेल भेज दिया गया लेकि न उन्हें कुछ नहीं कहा गया जो शोभायात्रा को लेकर विवाद पैदा करना चाहते थे। आजादी से पहले और बाद कांग्रेस की मनोदशा तुष्टिकरण की राजनीति के कारण इतनी अधिक कलुषित हो चुकी थी कि सत्य-असत्य, नैतिकता-अनैतिकता और न्याय-अन्याय के मध्य का भेद ही समाप्त हो गया था। अनेक बार ऐसा हुआ कि तुष्टिकरण के नाम पर भारत राष्ट्र की सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक श्रेष्ठता को चुनौती देने में भी संकोच नहीं किया गया। ऐसी ऐतिहासिक गलती गांधीजी आजीवन करते रहे।

उन्होंने हरिजन्य में एक लेख लिखा जिसमें वे कहते हैं कि मैं राम और कृष्ण का नाम लेना नहीं चाहता, क्योंकि वे ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं है। किन्तु मैं अबू बकर और उमर के नाम लेने के लिए बाध्य हूं। वैसे ये बड़े सामाज्य के शासन थे लेकिन जीवन संन्यासी वाला था। हरिजन अंक 27 जुलाई 1927, यदि हम वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो तुष्ठिकरण सत्याधारित एवं न्यायसापेक्ष सार्वजनिक जीवन में बाधा है। आजादी से पहले तथा पश्चात तुष्टिकरण ने ही भारतीय राजनीति का संचालन किया है। यही कारण है कि राष्ट्रनिष्ठ राजनीति का उदय समग्रता तथा पूर्ण भव्य के साथ भारत में नहीं हो सका। अब इसे परिवर्तित करने की आवश्यकता है, चाहे हमारा संविधान हो या प्रकृति द्वारा प्रदत्तअधिकार, वे समानता और व्यक्ति प्रतिष्ठा के भाव पर आधारित हैं। अत: तुष्टिवाद के स्थान पर मानवतावाद को स्थापित करना जरूरी है।

अशोक त्यागी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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