लालू प्रसाद यादव जेल में सजा काट रहे है। यह पहला मौका है जब किसी चुनाव में लालू प्रसाद यादव रैली, सभा से दूर रहे। इसका नुक सान उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल समेत उनके सहयोगी दलों को भी उठाना पड़ा। चुनावी समर में नेतृत्व उनके बेटे तेजस्वी यादव के कंधों पर था। अभी तक चली आ रही जातिगत समीकरण पर आधारित राजनीति ने सभी दलों को उसके हिसाब से चुनावी मैदान में उम्मीदवार उतारने को विवश कर दिया। चाहे एनडीए हो या यूपीए, किसी ने उस फार्मूले से किनारा नहीं किया। यादव, भूमिहार, मुसलमान, कुर्मी, पासवान सभी तरह के उम्मीदवारों पर मैदान में दांव लगा और उन्हीं में से जनता ने अपने क्षेत्र का प्रतिनिधि चुना। आरजेडी, कांग्रेस, हम, आरएलएसपी, वीआईपी जैसी पार्टियों के गठबंधन के उम्मीदवार भी जाति आधारित राजनीति से ही निकलकर आए थे, फिर भी एनडीए को टक्कर नहीं दे पाए।
लालू प्रसाद की अनुपस्थिति, तेजस्वी का नेतृत्व या तेजप्रताप का विद्रोह, आखिर ऐसी हार का क्या कारण था? एनडीए अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर चुका था। कार्यकर्ता प्रचार में जुट गए थे लेकिन महागठबंधन अपने उम्मीदवारों की सूची जारी नहीं कर पा रहा था और जब सूची जारी हुई तो आरजेडी और कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेता नाराज हो गए। नाराज नेताओं ने घोषणा कर दी कि वह चुनाव मैदान में रहेंगे। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शकील अहमद मधुबनी से चुनाव मैदान में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में उतरे और तीसरे नंबर पर रहे। दरभंगा में एमएम फातमी जैसे वरिष्ठ नेताओं का पार्टी को साथ नहीं मिला. इसका असर कार्यकर्ताओं पर भी हुआ। लालू प्रसाद यादव के बड़े पुत्र तेज प्रताप यादव के परिवार से विद्रोह ने चुनावी अभियान में महागठबंधन को क मजोर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जहानाबाद की सीट आरजेडी जीत सकती थी अगर तेज प्रताप यादव के विद्रोह को रोक दिया जाता।
आरजेडी यहां लचर रवैया अपनाती रही। इसका असर कई दूसरी लोक सभा सीटों पर भी हुआ जिनमें शिवहर, सारण लोक सभा क्षेत्र प्रमुख हैं। बेगूसराय में माहौल खूब बनाया गया पर एनडीए के आगे महागठबंधन की एक न चली। इस सीट पर पिछले पांच दशक में सीपीआई का कोई उम्मीदवार जीत दर्ज नहीं कर पाया लेकिन दावा किया जाता है कि यह लेफ्ट का गढ़ है। यहां लेफ्ट के कन्हैया कुमार का मुकाबला राइट के गिरिराज सिंह से था। आरजेडी के प्रो. तनवीर हसन तीसरे नंबर पर आए। चुनाव से पहले चर्चा ये चली थी कि क न्हैया विपक्ष का उम्मीदवार होगा लेकिन जब उम्मीदवारों के नाम घोषित किए गए तो सच्चाई कुछ और सामने आई, इससे ना आरजेडी को फायदा हुआ और ना ही लेफ्ट को। जीत की राजनीति में कुशवाहा, मांझी और साहनी से साझेदारी कर महागठबंधन की रणनीति यह थी कि इस जाति के लोग साथ आ जाएंगे लेकिन यह गणित भी काम न आया। उपेंद्र कुशवाहा, जीतन राम मांझी, मुकेश साहनी जैसे नेता और उनकी पार्टी इस समुदाय के लोगों को साथ लाने में नाकामयाब रहे।
जाति का सारा गणित धरा का धरा रह गया। बिहार की राजनीति में तकरीबन 20 साल बाद ऐसा पहली बार हो रहा था कि लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार और राम विलास पासवान एक साथ थे। 2014 में नीतीश कुमार की पार्टी एनडीए से अलग चुनाव लड़ी थी और हार गई थी। रामविलास पासवान चुनाव से ठीक पहले एनडीए में शामिल हुए थे और जीत हासिल कर सरकार में भी शामिल हुए थे। नीतीश कुमार अपने पिछले चुनाव के समय लिए गए निर्णय को भूले नहीं थे। एनडीए से उपेंद्र कुशवाहा के जाने के बाद नीतीश कुमार ने बीजेपी से अपनी शर्तों पर सीटें हासिल कीं और चुनाव लड़े। रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा भी फायदे में रही लेकिन इन दोनों की रणनीति ने आरजेडी और महागठबंधन को ध्वस्त कर दिया। बिहार में हुए इस बार के लोकसभा चुनाव में आरजेडी और उनके सहयोगी दलों को संभालने वाले लालू प्रसाद जैसे मंजे हुए नेता का न होना भी काफी नुकसानदेह साबित हुआ।
सुरेश कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)