डूब रहा रेगिस्तान का जहाज

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आजकल विश्व प्रसिद्ध पुष्कर मेले की धूम है। अजमेर और राजस्थान से कहीं ज्यादा देश के अन्य हिस्सों में इसके बारे में बातें हो रही हैं लेकिन उन बातों में जितनी रंगीनी है, उतनी मेले में नहीं। जमीनी हकीकत यह है कि मेले की चमक फीकी पड़ गई है। पुष्कर मेले की पहचान अंतरराष्ट्रीय पशु मेले, खासकर सबसे बड़े ऊंट मेले के तौर पर है। हालांकि, यह केवल पशु मेला न होकर घुमंतू समाज के मिलने-मिलाने और अपना सुख-दुख साझा करने का एक अवसर भी रहा है। इस पशु मेले में ऊंट ही नहीं बल्कि गाय-बैल, भैंस, गधा, घोड़ा, खच्चर और भेड़-बकरी भी आते हैं मगर पिछले कुछ समय से गधे-खच्चरों, गाय-बैल, भैंस और भेड़-बकरियों की तादाद कम होती जा रही है। इस साल नई बात यह हुई है कि ऊंटों की संख्या में भी भारी गिरावट आई है। पहले यहां 15 से 20 हजार ऊंट आते थे लेकिन वह आंकड़ा महज 2500 पर आकर सिमट गया है। जो लोग ऊंट लेकर आए भी, वे वापस लौट गए। 20 से ज्यादा ऊंट तो मर गए और कितने ही मरणासन्न हैं। 30 से 70 हजार में बिकने वाले ऊंटों को 1500 से 2000 रुपये में भी खरीदने वाला कोई नहीं रह गया है।

ओड़ घुमंतू जाति के लोग हर वर्ष खास नस्ल के खच्चर लेकर आते थे। कुचबंदा और बंजारों के गधे प्रसिद्ध थे तो बागरी की भेड़-बकरियां। साठिया और गाडिय़ा लुहारों के गाय-बैल खरीदने दूर-दराज से लोग आते थे मगर इन घुमंतू समाजों से एक भी व्यक्ति इस बार यहां नहीं आया। ऊंटों का कम आना तो बहुत ही दुखद संकेत है। इसका मतलब है, पुष्कर मेले का ही सिमट जाना। ऊंट केवल चार पैर के जानवर मात्र नहीं हैं। वे हमारे इतिहास, संस्कृति और परंपरा के आधार रहे हैं। पुष्कर मेले में पहले पूजा-आरती होने के बाद मेले की शुरुआत में ऊंट पर नगाड़ा चलता था और ऊंटों की दौड़ से लेकर उनके श्रृंगार तक की प्रतियोगिताएं होती थीं। रात को भोपे पाबूजी की फड़ सुनाते थे। रायका-रैबारी ऊंटों की शोभा यात्रा निकालते थे। सैकड़ों की संख्या में कालबेलिया बीन की धुन पर लहरिया सुनाते थे। कठपुतली के खेल होते थे। ओड़ लोग अपने खच्चर और कुचबंदा गधों को सजाकर लाते थे। उनकी भी प्रतियोगिता होती थी। बंजारनें गोदना और कशीदाकारी करती थीं लेकिन ये समुदाय अब मेले में कहीं भी दिखाई नहीं पड़ रहे हैं।

गौरतलब है कि भारत में ऊंट पालने का काम सभी समुदाय करते हैं लेकिन उनकी ब्रीडिंग करवाने का काम केवल रायका-रैबारी अर्धघुमंतू समाज ही करता है जिसके पास ऊंटों के बारे में विस्तृत जानकारी है। रायका-रैबारी ऊंटों के काफिले के साथ मेले के 15 दिन पहले से ही घरों से निकल लेते हैं। जंगल, नदी-नालों, पहाड़, खेत-खलिहानों से गुजरते हुए वे मेला-मैदान से दूर मिट्टी के धोरों पर अपना डेरा जमाते हैं। नजदीक जंगल हुआ तो सुबह-शाम ऊंटों को चरा लेते और तब तक टोले के दूसरे सदस्य वहीं पर ऊंट की मींगण पर बाटी बना लेते थे लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। सरकार ने इस बार मिट्टी के धोरों की बाड़ाबंदी कर दी। ये लोग ऊंट को बाहर लेकर नहीं जा सकते। जंगल में घुसने पर रोक लगा दी लेकिन यह नहीं सोचा कि उनके ऊंट खाएंगे क्या? मेले में पशु चारे की कीमत 15 किलो है और एक ऊंट को दिनभर में 20 किलो चारा चाहिए। कहा गया कि हैलिपैड बनेगा, इसलिए जमीन को कंक्रीट कर दिया गया। इससे ऊंटों की खाल छिल गई और वे वहां बैठ तक नहीं पा रहे हैं।

ऊंटवालों के रहने के लिए तंबू है पर उसका किराया 2000 रुपये है। पिछले 10 दिनों में 4 बार बारिश हो चुकी है। आखिर ये लोग कहां जाएं? जंगल खुला था तो ऊंट पेड़ों के नीचे खड़े हो जाते थे लेकिन अब निरंतर नमी की वजह से ऊंटों में एक बीमारी ‘पांव-खुजली’ फैलती है। इसमें पहले ऊंट के बाल उड़ते हैं, फिर वहां पर घाव बन जाता है और कुछ दिन में कीड़े पडक़र उस ऊंट की मृत्यु हो जाती है। यही यहां 20 ऊंटों के साथ हुआ और कितने ही ऊंट इस बीमारी की चपेट में हैं। इस बीमारी के इलाज पर 700 से 1000 रुपये लगते हैं। ऊंटवाले जो दवाई अपने साथ लाए थे, वह बारिश में भीग गई। मेले में कहने को इतने डॉक्टर हैं लेकिन कोई चिकित्सकीय सहायता नहीं है। रेगिस्तान के जहाज को डुबोने के लिए सरकारें ही जिम्मेदार रही हैं। नोटबंदी के अलावा ऊंट को राजकीय पशु का दर्जा देने से भी समस्याएं पैदा हुई हैं। बाहरी राज्यों से व्यापारी अब ऊंट खरीदने नहीं आ रहे क्योंकि वे इन्हें सीमापार नहीं ले जा सकते हैं।

पुष्कर में ऊंट की कीमत मात्र 1500 रुपये लग रही है जबकि एक रायका का पिछले एक महीने का खर्चा ही 8 से 10 हजार हो गया। ऊंटनी का ब्रीडिंग सीजन 13 महीने का होता है जिसमें अंतिम 3 महीने में उससे कोई काम नहीं ले सकते हैं। उस 3 महीने के 10 हजार देने का वादा किया गया था लेकिन उसके ऊपर काफी समय से रोक लगी है। इंश्योरेंस किया गया था लेकिन किसी को कुछ नहीं मिला। सरकार को चाहिए कि बाहरी राज्यों में ऊंट की बिक्री से प्रतिबंध हटा ले क्योंकि जब ऊंट पालक ही नही रहेंगे तो ऊंट कहां से बचेंगे। ऊंटनी के एक बच्चे के पालन का जो 10 हजार मिलता था, वह मिलना शुरू हो। ऊंटनी का दूध गुणवत्ता पूर्ण है। इनके टोले से इस दूध की सीधी खरीद हो, उससे विभिन्न उत्पाद तैयार किए जाएं और उन्हें बाहर बेचा जाए, जैसे लोक हित पशु संस्थान, पालीवाले कर रहे हैं। पुष्कर मेले की आत्मा ये ऊंट ही हैं। ये नही बचेंगे तो न यह मेला बचेगा, न यहां की संस्कृति।

अश्विनी शर्मा
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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