मोदी दौर में लिखेंगे मिलकर नई कहानी हम हिंदुस्तानी
बदलाव एक साश्वस्त प्रक्रिया है जो चलती रहती है और 2019 के लोकसभा चुनाव के परिणाम पूरी तरह से उस बदलाव की ओर इशारा कर रहे हैं जो बदलाव भारत की जनता चाहती है। लेकिन यह बड़े आश्चर्य का विषय है कि अभी भी हमारे देश के नेता इस इशारे को नहीं समझ पा रहे हैं। या हम कहें कि समझना ही नहीं चाह रहे हैं। आज भी वह दशकों पुरानी रूढ़िवादी विचारों के बीच घिरे हुए हैं और इसी सोच का नतीजा महागठबंधन का उदय है। असल में देखा जाये तो उत्तर प्रदेश विधानसभा में गोरखपुर और फुलपुर के परिणामाों को देखते हुए जाति, संप्रदाय के नाम पर एक बार फिर वोट लेने की जुगत लगाई गई और मायावती तथा अखिलेश की पार्टियां जो एक समय धुर विरोधी थे वह कुर्सी के लालच में एक मंच पर आ खड़े हुए। यह एक ऐसा गठबंधन था जिसको कह सकते हैं दूर-दूर तक बेमेल और दोराही अब एक चैराहे पर खड़े थे।
वहां उन्होंने साथ चलने की सोची पर बाद में चुनाव खत्म होने के बाद यहां तक कि मायावती ने अपने को प्रधानमंत्री का कंडीडेट बनाने की बात भी सोची और हरकिशन सिंह सुरजीत का रोल अदा किया इस बार चंद्रबाबू नायडू ने और मायावती के नाम को आगे बढ़ाया गया। कभी यह भी सुबगुहाट थी कि सरदार मनमोहन सिंह भी एक विकल्प हो सकते हैं। परंतु ये सोशल इंजीनियरिंग और समाजवादी इंजीनियरिंग दोनों ही शायद अभी 24 साल पुराने ख्वाब देख रहे थे। जबकि सपा-बसपा ने हाथ मिलाया और आखिर बहन जी की इंजीनियरिंग थोड़ बहुत काम करी और हाथी के भार से साईकिल डगमगा गई। हम सीधे कहें कि जातियों और समुदायों के संगठन से गठबंधन कामयाब नहीं रहा। वहीं सपा का एमवाई फैक्टर यानी मुसलिम यादव फैक्टर को भी जोरदार झटका लगा।
दूसरी तरफ अगर देखें तो इस चुनाव में यह भी साफ हो गया कि सालों पुरानी टेस्टिड चीजें हर बार चमकाकर आगे नहीं बढ़ाई जा सकती। जहां तक हम कांगे्रस की बात करें राहुल गांधी की न्याय स्कीम जो गरीबी हटाने या गरीबों के लिये थी वह सन 1971 में इंदिरा गांधी टेस्ट कर चुकी थी और उसका फल भी चख चुकी थी। यह न्याय स्कीम भारत की जनता के लिये कोई नई नहीं थी। राहुल गांधी को शायद यह उनके सलाहकारों ने नहीं बताया कि मोदी की किसान स्कीम और अन्य इस तरह की कई स्कीमें गरीब, किसान, मजदूरों के लिये फायदा अभी भी पहुंचा रही हैं। इस चुनाव ने यह भी सिद्ध किया कि जो नारे इस चुनाव में दिये गये वह विपक्ष ने सोच-समझकर नहीं दिये। क्योंकि भाजपा की नीति और नारे इनसे सबसे कहीं अधिक जनता के करीब थे और जल्दी लोगों को समझ में आने वाले थे।
मोदी विरोधी सारी पार्टियां शायद इसमें अपने को बड़ा गर्व महसूस कर रही थी कि मोदी हटाओ। लेकिन मोदी यह कह रहे थे कि ‘भाजपा लाओ देश बचाओ’ अपने आप में यह भी एक बहुत बड़ी बात थी। क्योंकि आज का नवयुवक अपने देश को कहीं भी नीचे जाते नहीं देखना चाहता। राहुल गांधी ने कर्जमाफी, न्याय, राफेल को चुनावी मुद्दा बनाते हुए रैलियां की, रोड़ शो किये। इंटरव्यू दिये लेकिन यह वोट में तब्दील नहीं हो पाये। यानी हम कहें कि उनका मैसेज वोटरों तक नहीं पहुंच पाया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने यह साबित कर दिया कि भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, नोटबंदी, किसानों की दुर्दशा, राफेल, जीएसटी इत्यादि पर एयर स्ट्राईक, सर्जिकल स्ट्राईक, उज्जवला योजना, आयुष्मान योजना, स्वर्णाें को नौकरियों में 10 फीसदी का आरक्षण इत्यादि भारी पड़ी और जनता ने इसे हाथों हाथ लिया।
भारत की जनता ने फिर एक बार दिखाया कि केवल पाकिस्तान से लड़ाई या किसी विपदा में हाथ मिलाकर भारतमाता के लिये न्यौछावर होने को तैयार है। बल्कि नये भारत के उदय में भी जाति, धर्म और समाज के भेदभाव को भूलाकर भारत के विकास में कंधे से कंधा मिलाकर अपने देश के भविष्य को मजबूत हाथों में सौंप पांच साल इंतजार की भी ताकत रखते हैं। आज वह कहां हैं जो खून की नदियां बहा रहे थे या जय श्रीराम के नारे लगाने वालों को पुलिस के डंडे लगवा रहे थे। या हिंदुस्तान वालों संभल जाओ हम देख लेंगे ऐसी कश्मीरी ताकतें कहां हैं। आखिर में जनता ने सबको उनका स्थान याद दिला दिया। जो क्षेत्रीय दल जातियों के भरोसे आगे बढ़ना चाह रहे थे उन्हें अब पांच साल एक बार फिर अपने इस विचारधारा को सोचने का मौका है कि कोई भी जाति, कोई भी धर्म किसी का बंधुआ मजदूर नहीं है।
क्योंकि सब भारतवासी यह जानते हैं कि अगर देश मजबूत रहा तो वो मजबूत हैं उनका परिवार मजबूत है उनका आने वाला समय भी मजबूत है और देश ही अंगे्रजों के समय के सिद्धांतों पर चला जाये तो आज शायद एक मिनट भी जीना दुभर हो जाये। परिवारवाद भी शायद अब अंतिम सांसें गिन रहा है। अब बात करें तो चाहे वह चैधरी चरण सिंह का परिवार हो जिसमें दोनों ही विशेष सीटें परिवार से हट गईं। अब मुलायम सिंह के परिवार में ही लें तो वह भी सिमटता हुआ नजर आ रहा है। गांधी परिवार ने अपनी अमेठी सीट को खो दिया यह भी इस ओर इशारा करता है कि परिवारवाद की अब कोई नहीं सुनता काम ही या क्षेत्र का विकास ही उतना महत्वपूर्ण है जितना परिवार। यह बात भी गौर करने वाली है कि जो पचास प्रतिशत वोट भारतीय जनता पार्टी को मिले वह सभी तबकों और जाति और समाज थे।
लेकिन कुछ सोशल इजीनियर अभी भी हार नहीं मानते और एक नई राग अलापने की कोशिश कर रहे हैं इस पचास प्रतिशत में कुछ मुसलिम मतदाताओं का मिला वह महिलाओं का मत था। लेकिन क्या वह यह नहीं सोचते कि उन्होंने नये भारत के निर्माण में जो युवा पहली बार भारत के निर्माण में वोट कर रहे हैं तो उनके बारे में क्या राय है क्या वो सारे वोट कहीं और पड़े। जहां तक इस जनचेतना वाले चुनाव की बात है उसमें यह कहा जा सकता है कि युवाओं केे वोट ने भारतीय जनता पार्टी को वो स्थान दिलाया जिस स्थान पर आज नरेंद्र मोदी को एक बार फिर भारत ने अपना प्रधान चुना है। क्या अब वह समय नहीं आ गया है कि हम सब भारतवासी अंगे्रजों के बनाये हुए इस छदम से बाहर आये और जाति के नाम पर या जब कोई पूछे कि तुम्हारी जाति क्या तो हम कह सकें कि हमारी जाति और धर्म भारत है। जितना भी हो केवल यह सत्य है कि मोदी और अमितशाह की जोड़ी ने सारे वायदों को खत्म कर और सारी राजनीति जो एक संकुचित दायरे में थी उसे खत्म कर राष्ट्रप्रथम या हम कहें कि राष्ट्रवाद के रंग में पूरे भारत को रंग दिया।
‘‘जातिपाती पूछे न कोई भारत भजै तो भारत होई’’
आर. पी. सिंह
लेखक सुभारती मीडिया के सीईओ हैं