अपनी तारीफ खुद ही करना सीधे-साधे अहंकार को दर्शाता है। लक्ष्य तक पहुंचने के लिए कड़ी मेहनत करना होता है, उससे जो सफता मिलती है, उसे पचाना भी मुश्किल काम है। लगो जब भी सफल होते हैं तो सबसे पहले इसका दिखावा करते हैं। दूसरों को बताते हैं कि उन्होंने कोई बहुत बड़ा काम कर दिया है। श्रीरामचरित मानस के सुंदरकांड में हनुमानजी से हम सीख सकते हैं कि जब भी कोई सफलता मले तो हमें शांत हो जाना चाहिए। हमारी सफलता की कहानी कोई दूसरा बाताता है तो हमें घर-परिवार और समाज में विशेष मान-सम्मान मिलता है।
रामायण में हनुमानजी सीता की खोज में लंका गए। ये काम बिल्कुल भी आसान नहीं था। समुद्र लांघकर लंका पहुंचना और रावण के राज्य में सीता का पता लगाना, बहुत मुश्किल काम था। हनुमानजी ने ये काम बहुत अच्छी तरह किया। लंका जलाकर और सीताजी को संदेश देने के बाद उनका श्रीराम के पास लौटना सफलता की चरम सीमा थी। हनुमानजी चाहते तो अपने इस काम को स्वयं श्रीरामजी के सामने बयान कर सकते थे। जैसा आज के समय में अधिकतर लोगों के साथ होता है, लोग अपने सफलता की कहानी स्वयं दूसरों को न सुनाएं तो शान्ति नहीं मिलती है। हनुमानजी जो करके आए, उसकी गाथा जामवंत ने श्रीराम को सुनाई थी।
रामचरित मानस में लिखा है कि
नाथ पवनसुत कीन्ही जो करनी। सहसहुं मुख न जाअ सो बरनी।।
पवनतनय के चरित्र सुहाए। जामवंत रघुपतिहि सुनाए।।
इस चौपाइयों में लिखा है जामवंत करते हैं कि हे नाथ। पवनपुत्र हनुमान ने जो करनी की है, उसका हजार मुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकता। तब जामवंत ने हनुमानजी के सुंदर चरित्र यानी काम श्रीरघुनाथजी को बताए।
इसके बाद आगे लिखा है कि
सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरिष हियं लाए।।
ये गाथा सुनने के बाद कृपानिधि श्रीरामचंद्रजी के मन को बहुत ही अच्छा लगा। उन्होंने सुश होकर हनुमानजी को ह्रदय से लगा लिया। परमात्मा के ह्रदय में स्थान मिल जाना अपने प्रयासों का सबसे बड़ा पुरस्कार है।