चार राष्ट्रों ने भारत को पूछा नहीं हम हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठे है ?

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शांघाई सहयोग संगठन की शिखर बैठक में हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहली बार अफगानिस्तान पर अपना मुँह खोला। उन्हें बधाई, उनके जन्मदिन की भी! पिछले डेढ़-दो महिने से ऐसा लग रहा था कि भारत की विदेश नीति से हमारे प्रधानमंत्री का कुछ लेना-देना नहीं है। उन्होंने विदेश नीति बनाने और चलाने का सारा ठेका नौकरशाहों को दे दिया है लेकिन अब वे बोले और अच्छा बोले। उन्होंने अफगानिस्तान में सर्वसमावेशी सरकार और आतंक-मुक्ति की बात पर जोर दिया, जो बिल्कुल ठीक थी लेकिन उसमें नया क्या था? वह तो सुरक्षा परिषद और मानव अधिकार आयोग की बैठक में सभी राष्ट्र कई बार प्रस्ताव पारित कर चुके हैं। सबसे ज्यादा खेदजनक बात यह हुई कि इस शांघाई संगठन की बैठक में भाग लेनेवाले राष्ट्रों में से चीन, रूस, पाकिस्तान और ईरान ने अपनी एक अलग बैठक की।

इन चारों राष्ट्रों ने भारत को पूछा तक नहीं। भारत को अछूत मानकर इन राष्ट्रों ने उसे अलग बैठाए रखा। ये यह बताएं कि भारत की गलती क्या है? भारत ने आज तक हमेशा अफगानिस्तान का भला ही किया है। उसने वहाँ कभी अपना कोई स्वार्थ सिद्ध नहीं किया। अफगानिस्तान की आम जनता में भारत के लिए जो सराहना का भाव है, वह दुनिया के किसी राष्ट्र के लिए नहीं है। आज अकालग्रस्त अफगानिस्तान की जैसी मदद भारत कर सकता है, दुनिया का कोई राष्ट्र नहीं कर सकता है। लेकिन मुझे लगता है कि सारे पड़ौसी राष्ट्रों के दिल में यह बात घर कर गई है कि भारत सरकार की कोई अफगान नीति नहीं है। वह अमरीका का पिछलग्गू बन गया है।

इस धारणा को गलत साबित करते हुए हमारे विदेश मंत्री जयशंकर ने चीनी विदेश मंत्री वांग यी को आश्वस्त किया है कि वे हमारे सेनापति बिपिन रावत के चीन-विरोधी बयान से भी असहमत हैं और भारत किसी तीसरे देश (अमेरिका) के कारण चीन से भारत के आपसी संबंधों को प्रभावित नहीं होने देगा। यह तो बहुत अच्छा है लेकिन अफगानिस्तान के मुद्दे पर भी हम यह बात क्यों नहीं लागू कर रहे हैं? नरेंद्र मोदी का यह आशय ठीक है कि तालिबान सरकार को मान्यता देने में जल्दबाजी न की जाए लेकिन अफगान जनता की मदद में कोताही भी न की जाए।

तालिबान से संपर्क किए बिना इस नीति पर हम अमल कैसे करेंगे? अब अमेरिका, ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया ने चीन को घेरने के लिए सामरिक समझौता, नाटो की तरह कर लिया है लेकिन अमेरिका का सारा जोर चीन के खिलाफ लग रहा है। उसे दक्षिण और मध्य एशिया की कोई चिंता नहीं है, जो भारत का सदियों पुराना परिवार (आर्यावर्त्त) है। अमेरिका से भारत के रिश्ते मधुर रहें, यह मैं चाहता हूं लेकिन हमें अपने राष्ट्रहित को भी देखना है या नहीं? यदि चीन, पाकिस्तान, रूस और ईरान जैसे राष्ट्र तालिबान की वर्तमान सरकार से खतरा महसूस कर रहे हैं और उससे निपटने का इंतजाम कर रहे हैं तो हम हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठे हुए हैं?

डा. वेदप्रताप वैदिक
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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