गिरती भाषा और विश्वगुरु का गुमान

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फिर समाजवादियों ने। इन्होंने इंदिरा गांधी के लिए ऐसे गंदे नारे बनाये थे, जिसे लिखा नहीं जा सकता! उन की तुलना में जनसंघ और भाजपा के नेता सार्वजनिक रिश्ता शिष्टाता के लिए जाने जाते थे। लेकिन इधर उन के नेताओं ने राजनीतिक जीवन, मीडिया और सोशल मीडिया में लांछन, झूठे, क्षुद्र आरोप और अशिष्ट भाषा को भरपूर प्रोत्साहन दिया है। उन्होंने ऐसा क्यों किया? यह नहीं कि पहले उन का शिष्ठाचार दिखावा था।

एक मित्र लिखते हैं, दूसरे की खिल्ली उड़ाना, भद्दा कमेंट करना, बात-बात में चिल्लाना, अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल करना, अकारण झूठ बोलना, मनमानाी करना, बिना तथ्य के बहस करना अपनी जगहंसाई करना, अपनी पीठ ठोकना, चमचागिरी का बोलबाला होना, रीढ़विहीन और मूखों की फौज तैयार करना आज का नया फैशन है…और दावा करना कि हम भारत को विश्व गुरु बनायेंगे, कुछ अजीब सा लगता है। नारा और क्रियाकलाप में कोई सामंजस्य नहीं दिखता है। इस में एक-एक बात हमारी गिरावट का संकेत है। बड़ी-बड़ी बातें या तो लोगों को बरगलाने के लिए होती है, अथवा वैसी बातें करने वाले उसे जमीन पर उतारना नहीं जानते। यद्यपि काफी लोग ऐसी लफ्फाजियों से प्रभावित हो जाते हैं, चाहे कुछ समय के लिए ही। किन्तु इस देश की हानि तो होती जाती है।

राजनीतिक विमर्श से भाषाई गिरावट इस दृष्टि से और निराशजनक है, कि भाजपा पहले चाल और चरित्र की उच्चता का दावा करती थी। विचार-विमर्श में गाली-गलौज की भाषा का आरंभ और सर्वाधिक प्रयोग यहां वामपंथियों ने किया है। मार्क्सवादियों ने भारत की राजनीतिक शब्दावली को विषैली हद तक गिराया। फिर समाजवादियों ने। इन्होंने इंदिरा गांधी के लिए ऐसे गंदे नारे बनाये थे, जिसे लिखा नहीं सकता। उन की तुलना में जनसंघ और भाजपा के नेता सार्वजनिक रिश्ता शिष्टाता के लिए जाने जाते थे। लेकिन इधर उन के नेताओं ने राजनीतिक जीवन, मीडिया और सोशल मीडिया में लांछन, झूठे, क्षुद्र आरोप और अशिष्ट भाषा को भरपूर प्रोत्साहन दिया है। उन्होंने ऐसा क्यों किया? यह नहीं कि पहले उन का शिष्ठाचार दिखावा था। असल कारण यह लगता है कि अपने राष्ट्रवादी दावों को पूरा करने की बुद्धि और सामर्थ्य उन के पास नहीं है। यही छिपाने के लिए वे विपक्षियों को जोर-जोर से निंदित कर विषय बदलने की कोशिश करते हैं, ताकि उन के अपने सही-गलत कार्मों, अकर्मण्यता और खोखलेपन का हिसाब न लिया जाए।

इस के लिए उन्होंने कम्युनिस्टों वाली मानसिकता और शब्दावली तक अपना ली है। वही मित्र आगे लिखते हैं, नया जमाना है और नया राह है। राष्ट्र-प्रेम मतलब बीजेपी। विपक्ष मतलब पाकिस्तान-समर्थक। बीजेपी पुरजोर तरीके से विपक्षियों के खात्मे की कोशिश कर रही है। जनतंत्र में उन का विश्वास नहीं रहा क्या? चीन और रुस की तरह एक पार्टी सरकार! यहां यह भी जोड़ दे कि कम्युनिस्टों की तरह ही भाजपा समर्थकों को अपने उल लोगों को भी लांछित करने को उकसाया जाता है, जो नेताओं की हर सही-गलत की हां-में-हां मिलाएं। ऐसे व्यक्तियों को पदलोभी स्वार्थी मूर्ख, बाहरी एजेंट, आदि कह कर निंदित करना भी कम्युनिस्ट परंपरा है। आलोचकों और असहमत लोगों पर आरोप लगाकर अपने को बेहतर समझना। इस स्थिति में विश्व गुरु बनने की बात भारी प्रवंचना है। वैसी लफ्फाजी अपने समर्थक हिन्दुओं का भावनात्मक दोहन भर है।

तलछट की भाषा बोलने वाले अच्छे विद्यार्थी तक नहीं बन सकते, गुरु होना तो दूर रहा। ऐसे लोगों में अपने कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन, बल्कि अपना भी मार्ग ढूंढने की क्षमता नहीं है। ऐसा मार्ग, जिस में स्वाभिमान से समझौता न करना पड़े। किसी तरह गिर कर, मिथ्याचार और अवसरवाद के सहारे सत्ता पाना, रखना ही उन का लक्ष्य लगता है। दशकों तक जनसंघ-भजपा ने अपने समर्थकों को कहा था कि बिना सत्ता पाए वे उन राष्ट्रीय, हिन्दू हितों को नहीं पा सकते, जिन्हें कांग्रेस ने उपेक्षित किया तथा वामपंथियों, इस्लामियों के प्रभाव में बिगाड़ा। अब लंबा अनुभव दिखाता है कि भाजपा में वह सब कर सकने की कोई समझ नहीं थी। कोई मद्दा भी न थी। वरना वे उस के लिए सीखने, प्रयत्न करने की कोशिश तो करते। उस के बदले भाजपा ने अपने खालीपन को कांग्रेस और वामपंथियों की नकल कर ढकने की कोशिश की है। गरीब-अमीर और अन्य विभेदकारी नारे देना जातिवादी हिसाब और आर्थिक विषयों पर केन्द्रित रहना, अंधा-धुंध प्रचार, विविध पार्टियों के नेताओं की जोड़-तोड़ स्वतंत्र बड़े पत्रकारों, बुद्धिजीवियों को किसी तरह ममिलाने और आलोचकों को लांछनों से गिराने, जैसा सारे उपाय यही दिखाते हैं।

शंकर शरण

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