गरीबी घटाने को सस्ती ऊर्जा जरूरी

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हम चर्चा कर चुके हैं कि ‘सस्ती और स्वच्छ’ ऊर्जा का लक्ष्य हासिल करने के लिए सिर्फ सौर और पवन ऊर्जा ही पर्याप्त नहीं है। भले ही सरकारी प्रोत्साहनों को देखते हुए इनकी कीमतों में गिरावट को लेकर उत्साह हो, लेकिन इन्हें सुलभ बनाने, इनके लिए इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने और इनका लाभ सभी तक पहुंचाने की दिशा में अभी बहुत काम करना बाकी है। इन्हें हर मायने में सस्ता बनाने पर ही आम लोगों तक ‘सस्ती और स्वच्छ’ ऊर्जा का लाभ पहुंच पाएगा।

कोयला आधारित और हाइड्रो संयंत्रों से पैदा होने वाली बिजली की जगह सौर व पवन ऊर्जा संयंत्रों से मिलने वाली बिजली के इस्तेमाल में अभी भी बड़ी चुनौती है लागत। यह बदलाव तकनीकी रूप से तो संभव है, लेकिन महंगा है। केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (सीईए) ने 2019 में 2021-22 की संभावित परिस्थितियों के आधार पर रिपार्ट जारी की थी, जब भारत में अक्षय ऊर्जा की क्षमता 36% होने की उम्मीद की गई थी (याद रखें, वास्तविक उत्पादन की हिस्सेदारी 20% से कम होगी)।

रिपोर्ट का अनुमान था कि कोयला विद्युत संयंत्रों को 25-30% क्षमता से कई घंटे चलाने की जरूरत होगी, ताकि अक्षय ऊर्जा को एब्जॉर्ब करने के लिए समय मिल सके। रिपोर्ट ने यह भी कहा कि भारतीय कोयला संयंत्रों का 45% से कम क्षमता पर चलना व्यवहार्य नहीं है। रिपोर्ट का अनुमान है कि कोयला संयंत्र की कम क्षमता से चलने की अवधि में भी 0.3 रुपए से 0.4 रुपए की अतिरिक्त ईंधन लागत आएगी, साथ ही इस योग्यता को पाने में अन्य पूंजी और संचालन लागत भी बढ़ेगी।

रिपोर्ट ने कई जरूरतों की पहचान की, जिनके लिए कोयला संयंत्रों को 25-30% के बजाय 45-55% क्षमता पर संचालित करने की आवश्यकता हो सकती है। इनमें शामिल है, पहली, सीमित हायड्रो और गैस संयंत्रों के चलने के समय और संचालन में सामंजस्य, जिसके लिए केंद्रीय समन्वय और अनुपालन को प्रोत्साहित करने के लिए एक वाणिज्यिक ढांचे की जरूरत होगी।

दसूरी, उद्योगों, ऑफिस और कृषि आदि की मांग को कम मांग के समय अवधि में ले जाना। इसके लिए टैरिफ का कार्यान्वयन जरूरी होगा जो दिन के समय के अनुसार बदलते रहें, साथ ही कृषि फीडरों को अलग करना होगा ताकि लोड को प्रबंधित करने के लिए उन्हें बंद किया जा सके। तीसरी, अक्षय ऊर्जा उत्पादन में लगभग 1% की कटौती। सैद्धांतिक रूप से, अक्षय ऊर्जा जनरेटर, पंप किए गए पानी के जरिए स्थानीय भंडारण के लिए अधिशेष उत्पादन का उपयोग कर सकते हैं या पानी से हाइड्रोजन बना सकते हैं।

इन सभी का मतलब होगा लागत, उच्च स्तरीय ऑटोमेशन और ग्रिड में इंटेलिजेंस बढ़ाना। दिलचस्प है कि इनमें से ज्यादातर समाधान पिछले दो दशकों से एजेंडा में हैं। पिछले कुछ समय में इनमें बैटरी स्टोरेज और पानी से हाइड्रोजन बनाने की लागत कम करने तथा दुनियाभर में ट्रांसमिशन नेटवर्क बनाने जैसी चीजें जुड़ गई हैं, चूंकि सूर्य दुनिया में कहीं न कहीं चमकता रहता है।

हो सकता है यह सब अगले 10-12 वर्षों में वास्तविकता में बदल जाए और मौजूदा केंद्रीकृत बिजली व्यवस्था की जगह पूरी तरह बंटा हुआ उत्पादन और खपत ले ले। लेकिन इनमें से कोई भी बदलाव अक्षय ऊर्जा की क्षमता बढ़ने की गति जितनी तेजी से नहीं हो रहा। इसलिए अक्षय ऊर्जा से जुड़ी छिपी हुई लागतों को पहचानना जरूरी है।

बेशक अक्षय ऊर्जा के कई लाभ हैं, खासतौर पर हवा की गुणवत्ता और स्वास्थ्य पर असर की दृष्टि से। लेकिन इसके तकनीकी और वाणिज्यिक निहितार्थों पर ध्यान दिए बिना यह समझना मुश्किल होगा कि आखिर क्यों बिजली वितरण कंपनियां अक्षय ऊर्जा उत्पादकों से पॉवर पर्जेज एग्रीमेंट पर मुकर जाती हैं और छत पर सौर ऊर्जा पैनलों को हतोत्साहित करती हैं।

जर्मनी में 30% बिजली उत्पादन अक्षय ऊर्जा से होता है और 20-25% सरचार्ज उपभोक्ता वहन करते हैं। भारत में ज्यादातर बिजली वितरण कंपनियां ग्राहकों के बड़े अनुपात से अपनी लागत तक नहीं निकाल पाती हैं और औद्योगिक ग्राहकों से मिलने वाली क्रॉस सब्सिडी और सरकारी सब्सिडियों पर निर्भर होती हैं। गरीबी घटाने के लिए सस्ती ऊर्जा की उपलब्धता भी महत्वपूर्ण है, जो कि सस्टेनेबिल डेवलपमेंट का पहला लक्ष्य है।

मनीष अग्रवाल
(लेखक इंफ्रास्ट्रचर विशेषज्ञ हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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