कौन करेगा विपक्ष का नेतृत्व?

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यह फैसला कांग्रेस पार्टी को करना है कि वह आगे बढ़ कर विपक्ष का नेतृत्व करेगी या दूसरी पार्टियों को नेतृत्व करने देगी? कांग्रेस के इसी फैसले से तय होगा कि उसका भविष्य क्या होना है। अब सवाल है कि कांग्रेस कैसे आगे बढ़ कर और किस तरह से विपक्ष का नेतृत्व करे? इसके लिए पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की मिसाल दी जा सकती है। वे सही कर रही हैं या गलत? इसका उनको अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में फायदा होगा या नुकसान? ये सब बातें बाद की हैं। फिलहाल यह स्थिति है कि वे हर दिन अपने राज्य के किसी न किसी हिस्से में प्रदर्शन कर रही हैं।

संशोधित नागरिकता कानून पास होने के बाद उन्होंने लगातार सात दिन तक राजधानी कोलकाता में रैलियां कीं। उसके बाद वे कोलकाता से बाहर निकलीं और राज्य के अलग अलग हिस्सों में रैली करके लोगों को इस कानून के विरोध के लिए तैयार कर रही हैं। उन्होंने अपने को दांव पर लगाया है। वे हर रैली में यह बता रही हैं कि इस कानून के बाद नागरिकता रजिस्टर बनेगा और अंततः देश के हिंदू-मुस्लिम सहित पूरी आबादी परेशान होगी। वे बता रही हैं कि यह कानून देश के संविधान और इसके बुनियादी उसूलों पर हमला है और जब तक वे जिंदा हैं तब तक इसे नहीं लागू होने देंगी।

क्या यह काम कांग्रेस पार्टी को नहीं करना चाहिए? तकनीकी रूप से भले उसे संसद में देश की मुख्य विपक्षी पार्टी का दर्जा नहीं मिला है पर व्यावहारिक रूप से तो वहीं देश की मुख्य विपक्षी पार्टी है। वह देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है और तमाम हार के बावजूद संसद के दोनों सदनों में उसके एक सौ करीब सांसद हैं। देश के पांच राज्यों में उसके मुख्यमंत्री हैं और उनके अलावा दो बड़े राज्यों में उसकी सहयोगी पार्टियों की सरकार है और वह सरकार में शामिल है। इस नाते पहली जिम्मेदारी कांग्रेस की बनती है कि वह देश में जो कुछ भी हो रहा है उसे लेकर वह लोगों के बीच जाए।

अगर कांग्रेस को ऐसा लग रहा है कि देश में इस समय जो कुछ भी हो रहा है वह ठीक नहीं है। वह संविधान की भावना के विपरीत है। वह विभाजनकारी है। वह देश के नागरिकों को आपस में लड़ाने वाला है। या वह यहीं मानती है कि यह ध्यान भटकाने वाली रणनीति है और केंद्र सरकार अपनी विफलताओं से ध्यान भटकाने के लिए नागरिकता की बहस में लोगों को उलझा रही है तब भी उसे असली मुद्दों को लेकर जनता के बीच जाना चाहिए। ध्यान नहीं आता है कि कांग्रेस ने कहीं देश के ज्वलंत मुद्दों को लेकर सड़क पर प्रदर्शन किया है या कोई आंदोलन किया है।

कांग्रेस के नेता दिल्ली के रामलीला मैदान की रैली की याद दिला सकते हैं या पार्टी महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा के कछ थिएटरिकल्स यानी नाटकीय प्रदर्शनों की याद दिला सकते हैं। कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों ने भी एक दिन संविधान बचाओ मार्च किया था। पर कांग्रेस के इस किस्म के नाटकीय प्रदर्शनों में निरंतरता का घनघोर अभाव है। निरंतरता सिर्फ एक चीज में दिख रही है और वह है कांग्रेस प्रवक्ताओं की प्रेस कांफ्रेंस और ट्विटर के ऊपर केंद्र सरकार पर हमला करना। इसमें कांग्रेस के नेता आगे बढ़ कर कमान संभाले हुए हैं। सारे प्रवक्ता ट्विट करके सवाल उठा रहे हैं। सोनिया, राहुल और प्रियंका तीनों बयान देकर ही अपना कर्तव्य पूरा कर रहे हैं। जबकि जरूरत इस समय सतत चलने वाले औक सुनियोजित आंदोलन की है।

सिर्फ इसलिए नहीं कि देश बचाना है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि नागरिकता कानून के बाद केंद्र सरकार राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर, एनआरसी की ओर बढ़ेगी। भले अभी भाजपा के नेता कह रहे हैं कि इस पर चर्चा नहीं हुई है पर हकीकत सबको पता है। पश्चिम बंगाल में भाजपा ने नागरिकता कानून के बारे में बांग्ला भाषा में जो पैम्फलेट छपवाया है उसमें पार्टी ने साफ लिखा है कि नागरिकता कानून के बाद नागरिक रजिस्टर बनेगा। सो, यह तय है कि नागरिक रजिस्टर का काम होगा और इसलिए यह संदेह भी नहीं रखना चाहिए कि फिर पूरा देश अपनी नागरिकता साबित करने के लिए लाइन में लगा होगा।

ऐसे ही देश की आर्थिक स्थिति को लेकर भी किसी को संदेह नहीं रखना चाहिए। सरकार की खुद की एजेंसी विकास दर पांच फीसदी से नीचे आने का अनुमान जाहिर कर चुकी है। सरकार मुनाफा कमाने वाली अपनी कंपनियों को बेचने की तैयारी में है। चौतरफा रोजगार का संकट है। इसे लेकर देश के दस बड़े मजदूर संगठनों ने देश में हड़ताल का ऐलान किया तो कांग्रेस की ओर से समर्थन का एक बयान नहीं आया। ट्विटर पर दिन भर सक्रिय रहने वाले राहुल, प्रियंका सहित कांग्रेस के तमाम बयान वीर नेता नदारद रहे। केंद्र सरकार ने कर्मचारियों को धमकाया कि अगर वे हड़ताल में शामिल हुए तो नतीजे भुगतने को तैयार रहें। इसके बावजूद लोकतंत्र व अभिव्यक्ति की दुहाई देने वाले नेता उनके समर्थन में नहीं उतरे।

सो, चाहे नागरिकता कानून के विरोध का मामला हो, संभावित नागरिक रजिस्टर की चिंता हो या आर्थिक मसले हों, किसी मामले में कांग्रेस पार्टी आगे बढ़ कर विपक्ष का नेतृत्व नहीं कर रही है। बिना विपक्ष की तरह बरताव किए वह इस उम्मीद में है कि देश के नागरिक उसे विपक्ष और साथ साथ भाजपा का विकल्प मान लें। यह खुशफहमी कांग्रेस को भारी पड़ सकती है। जिस तरह वह राज्यों में छोटी छोटी पार्टियों की पिछलग्गू बन कर रह गई है वैसे ही केंद्र में भी रह जाएगी। वह इस बुनियादी बात को नहीं समझ पा रही है कि देश इस समय जिस किस्म की अराजकता के दौर में है उसमें लोकतंत्र, संविधान और भारत के बुनियादी उसूलों की लड़ाई के लिए उसे आगे आना चाहिए। अगर वह आगे नहीं आती है तो नेतृत्व की जगह खाली नहीं रहेगी। कोई न कोई और उस जगह को भरने के लिए आगे आएगा।

सुशांत कुमार
लेखक पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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