कुदरत की तपस्या तो हमने ही भंग की

0
335

इस बार लंबे समय के बाद पर्यावरण को जैव विविधता के साथ जोड़कर देखने की कोशिश हुई है। जीवन और प्रकृति के संबंधों को हम इस रूप में समझ सकते हैं कि जीवन के दो पहलू हैं। एक आवश्यकताओं पर टिका है, दूसरा सुविधाओं पर। महत्वपूर्ण तो आवश्यकताएं ही हैं पर आज सुविधाएं हमारी प्राथमिकता में आ गई हैं। यही कारण है कि हवा, मिट्टी, पानी की अनदेखी हुई जिसने अंतत: जैव विविधता पर भी चोट की। तमाम तरह के कृषि उत्पाद, फसलें, फल, जड़ीबूटियां, ये सब जैव विविधता के प्रताप से हैं। गहराई में जाएं तो विलासिता के आधार भी इसी से जुड़े मिलेंगे। पर पेट के सवाल बड़े हैं और उसी से स्वास्थ्य भी जुड़ा है। पिछले 100 वर्षों में किसान के खेतों से 90 फीसदी जैव विविधता गायब हो चुकी है और पालतू जानवरों की आधी से ज्यादा नस्लें खत्म हो चुकी है। यह इशारा काफी है यह जानने के लिए कि ‘ऑल इज नॉट वेल।’ हर जलवायु विशेष मनुष्य और अन्य जीवों की आवश्यकताएं भी तय करती है। इसको यूं भी समझा जा सकता है कि स्थान विशेष के जीव जंतुओं का भोजन उस स्थान के अनुरूप और विशिष्ट होता है।

वैश्वीकरण और मुत आर्थिकी का एक कड़वा हिस्सा यह है कि हमने स्थान विशेष की भोजन संबंधी विशिष्टताओं को दरकिनार कर दिया है। इसीलिए स्वास्थ्य पर संकट के सवाल भी खड़े हुए हैं। जैव विविधता को नापने के तीन तरीके हैं- अनुवांशिक विविधता, प्रजातीय विविधता और पारिस्थितिकी तंत्रीय विविधता। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि गेहूं और धान अनुवांशिक विविधता का हिस्सा हैं, मगर उनकी विभिन्न प्रजातियां प्रजातीय विविधता का नमूना हैं। पारिस्थितिकी तंत्रीय विविधता क्षेत्र विशेष की पारिस्थितिकी पर निर्भर करती है। पिछले 100-150 वर्षों में हमने लगातार जैव विविधता खोई है और एक अध्ययन के अनुसार अगर पर्यावरण क्षति की गति यही रही तो 50 फीसदी तक प्रजातियां हम 21वीं सदी के अंत तक खो देंगे। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर की रिपोर्ट के अनुसार 121 पौधों की प्रजातियां और 735 जीव-जंतुओं की प्रजातियां रेड लिस्ट में आ गई हैं। इसी तरह जीव-जंतुओं की 2261 और पेड़-पौधों की 1827 प्रजातियां गंभीर रूप से संकटग्रस्त सूची में हैं।

एक तिहाई प्रजातियां खतरे की श्रेणी में आ चुकी हैं जिनमें 41 फीसदी उभयचर, 25 फीसदी स्तनधारी और 13.3 फीसदी पक्षी प्रजातियां हैं। इन निष्कर्षों का आधार 63,838 प्रजातियों के अध्ययन से मिले आंकड़े हैं, जो पृथ्वी पर कुल उपलब्ध प्रजातियों का 4 फीसदी ही हैं। यानी 96 फीसदी प्रजातियों का तो अध्ययन भी नहीं हुआ है। शिक्षा में प्रकृति विज्ञान व तंत्र की समझ ना के बराबर है। अगर यह शुरुआती दौर से ही शिक्षा का हिस्सा होता तो शायद हम अपने पारिस्थितिकी तंत्र के विभिन्न पहलुओं को लेकर इस कदर अनजान न होते और हमारी बढ़ी हुई समझ हमारी विकास की नीतियों में भी झलकती। पर ऐसा नहीं हुआ और यही वजह है कि आज विकास की शल विनाश के ही एक जैसी हो गई है। दुनिया में हर वर्ष 1 लाख 15 हजार वर्ग किमी जंगल विकास की भेंट चढ़ जाते हैं। स्वाभाविक रूप से वन्यजीव व प्रजातियां इसकी चपेट में आती हैं। वनीकरण से किसी भी सूरत में इसकी भरपाई नहीं हो पाती। पारिस्थितिकी तंत्र मात्र वन्य जीवों तक सीमित चीज नहीं बल्कि छोटी वनस्पति प्रजातियों, तरह-तरह के जीव-जंतुओं, कीड़े- मकोड़ों और जीवाणुओं-विषाणुओं का एक सामाजिक तंत्र है जिसमें सभी एक-दूसरे पर निर्भर हैं। इसे ही सातत्य भी कहा जाता है।

इस तंत्र में सबसे घातक भूमिका मनुष्य की ही रही जिसने अपने लालच और विलासिता के लिए सबकी बलि चढ़ा दी और यह सब विकास की आड़ में किया गया। इस सोच के पीछे एक बड़ा कारण शहरीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति और भोगवादी सभ्यता रही है। अब चूंकि शहरी वर्ग उस शिक्षा का अनुयायी रहा है जो भोगवाद सिखाती है और इसी शिक्षा व्यवस्था से निकले लोग नीति निर्धारक भी बन जाते हैं तो स्वभावत: ऐसी ही नीतियां पनपती गईं जिनमें मनुष्य की आवश्यकता को उसका दायित्व समझा गया। इस प्रकृति विरोधी प्रवृत्ति का सबसे पहला शिकार जैव विविधता ही बनी। जैव विविधता का मतलब पूरे तंत्र से है जिसमें मनुष्य भी एक हिस्सा है। हमारे चारों तरफ प्रकृति के तमाम उत्पादहवा, मिट्टी, पानी और इनसे उपजा भोजन जैव विविधता की ही देन हैं। मसलन, वनों से मिट्टी, हवा, बारिश आदि ही नहीं, नदी, कुएं, तालाब भी जुड़े हुए हैं। बिगड़ती हवा की रोकथाम वनों से ही संभव है।

देश में हरित क्रांति का आधार हिमालय के वनों की मिट्टी ही बनी। जल, वायु, सौर और जैव ऊर्जा जो विकास की हमारी योजनाओं का मुख्य आधार हैं, सब प्रकृति की जैव विविधता के ही परिणाम हैं। असल में हमने सबकुछ जोड़कर देखने की कोशिश नहीं की है। अगर ऐसा करते तो शायद पारिस्थितिकी तंत्र व प्रकृति के पारस्परिक रिश्तों को बेहतर ढंग से समझ पाते। जीवन के मूल सिद्धांतों के बारे में अपनी दृष्टि विकसित करके ही हम इस पृथ्वी पर जीवन के तमाम रूपों के बीच संतुलन बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। मगर सचाई यह है कि हमने करोडों वर्षों की प्रकृति की तपस्या को भंग कर दिया है और अब हमें जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग, कोरोना वाइरस और फैनी, तितली, अम्फन, निसर्ग जैसे नए-नए नामों वाली विपदाएं झेलना पड़ रहा है। कारण साफ है कि हमने सिर्फ पैसों की सोची, प्रकृति को भूल गए। यह भी ध्यान नहीं रख सके कि अगर प्रकृति ने साथ नही दिया तो सारा पैसा धरा रह जाएगा और प्राण संकट में पड़ जाएंगे।

अनिल पी जोशी
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here