पुलवामा के आतंकी हमले के 100 घंटे के अंदर ही हमारी फौज ने जैश-ए-मुहम्मद के कमांडर कामरान और गाजी रशीद समेत एक और आतंकी को मार गिराया। बहादुरी के इस कारनामे ने भारत के घावों पर थोड़ा मरहम जरुर लगाया लेकिन हमारे एक मेजर और चार जवान भी शहीद हो गए, यह एक नया घाव है। इससे क्या पता चलता है? यही कि आतंकियों के हौसले बहुत बुलंद हैं।
जो भी हो, इस घटना से मोदी सरकार को कुछ राजनीतिक राहत जरुर मिलेगी, क्योंकि सारा देश दुख और गुस्से में इतना डूबा हुआ है कि यदि सरकार पुलवामा के हत्याकांड के बाद हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती और सिर्फ जबानी जमा-खर्च करती रहती तो जनता के गुस्से का निशाना यह सरकार ही बनने लगती लेकिन असली प्रश्न यह है कि पुलवामा जैसे वीभत्स हत्याकांड के बाद इस तरह की मुठभेड़ क्या काफी है?
इस मुठभेड़ में शहीद हुए हमारे फौजी भाईयों के लिए लोगों के दिल में हार्दिक श्रद्धांजलि है लेकिन लोग पूछ रहे हैं कि क्या ऐसी मुठभेड़ें अक्सर नहीं होती रहती हैं? इसमें असाधारण क्या है ? क्या जैशे-मुहम्मद के असली ठिकाने पर हमला बोलने की हिम्मत हमारी सरकार में है ? या उसने पिछले चार-पांच दिन में कोई काम ऐसा किया है, जिससे आतंकवादियों की हड्डियों में कंपकंपी दौड़ जाए?
आतंक की जड़ें कश्मीर में दूर-दूर तक फैली हुई हैं। उन्हें उखाड़ने का रास्ता मैंने कल अपने लेख में बताया था लेकिन पता नहीं, हमारे नेताओं को भाषण झाड़ने से फुर्सत कब मिलेगी? यह कहने से काम नहीं चलेगा कि हमने फौज को पूरी छूट दे दी है। इसका अर्थ क्या है ? क्या पहले आपने उसके हाथ-पांव बांध रखे थे ? यदि हां, तो ऐसा क्यों ? आज जरुरी यह है कि सरकार आतंक के विरुद्ध मजबूत नीति बनाए और फौज से उस पर अमल करवाए।
जरुरी यह भी है कि भारत आए सउदी युवराज मुहम्मत से आतंक के विरुद्ध स्पष्ट कार्रवाई करने का वचन ले और चीन व संयुक्त अरब अमारात से भी पाकिस्तान पर दबाव डलवाए। जहां तक हमारी बहादुर फौज का सवाल है, आज उसमें इतनी क्षमता है कि वह आतंक और आतंक की जड़, दोनों को उखाड़ सकती है लेकिन उसे कोई साफ निर्देश तो मिले।
डॉ. वेदप्रकाश वैदिक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है।)