कर्नाटक में विधायकों के इस्तीफों से शुरू हुई राजनैतिक ड्रामेबाजी के तकरीबन तीन हफ्ते बाद आखिरकार मंगलवार को जेडीएस-कांग्रेस की चौदह माह पुरानी गठबंधन सरकार का अंत हो गया। हालांकि चौदह महीने पहले जब इस बेमेल गठबंधन की बुनियाद पड़ी थी, तभी से इसके कभी भी अवसान की सबको आशंका थी, इसलिए कि ऐसे गठबंधन जो बिना किसी न्यूनतम कार्यक्रम के वजूद में आते हैं, उनका इसी तरह पराभव होता है। चुनाव पूर्व कांग्रेस-जेडीएस को भाजपा की बी टीम बताया करती थी पर परिणाम आने के बाद जब किसी भी दल को बहुमत का आंकड़ा नहीं प्राप्त हुआ तब जोड-तोड़ की राजनीति शुरू हो गई। सबसे बड़े दल के रूप में उभरने के बाद भी बहुमत से दूर इसी त्रिशंकु स्थिति का फायदा उठाने की गरज से और भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए कम सीटों वाली जेडीएस पर दांव खेला गया।
हालांकि कांग्रेस के सिद्धारमैया और जेडीएस के कुमार स्वामी के बीच तल्खी होने के बावजूद कुमार स्वामी मुख्यमंत्री बनाये गये। यही वो वजह रही कि बीते चौदह महीनों में बतौर मुख्यमंत्री उनकी अशरु पूरित पीड़ा कई बार सार्वजनिक हुई। बदली परिस्थितियों में भाजपा के लिए कर्नाटक की सत्ता आसान हो गयी है। वैसे राज्य में जो राजनीतिक हालात हैं और कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की पूरे प्रकरण में जिस तरह की भूमिका रही है, उससे यह मान लेना अतिश्योक्ति न होगी कि निकट भविष्य में उनकी तरफ से नई सरकार को अस्थिर करने की कोशिश हो सकती है। यह आशंका इसलिए की जो भी कांग्रेसी बगावत पर उतरे उनकी आपत्ति कुमार स्वामी के नेतृत्व को लेकर रही है। दिल्ली के दखल पर भले ही कुमार स्वामी को क र्नाटक का ताज सौंपते वक्त सिद्धारमैया गुट के विधायक खामोश रहे लेकिन तभी से उठापाटक की राजनीति ने आकार लेना शुरू कर दिया था।
अब सवाल यही है कि बागी कांग्रेस विधायकों का मसला अब भी उनकी अयोग्यता-योग्यता को लेकर अधर में है, इसके अलावा जनता उन्हें चुनकर विधानसभा भेजती है या फिर पाला बदल की सजा देती है। भाजपा के पास फिलहाल 105 का आंकड़ा है लेकिन यह इतना भी नहीं है कि सिद्धारमैया जैसे नेता की चुनौती से बेअसर हो सके । भाजपा के लिए कर्नाटक में फूंक -फूंक कर आगे बढऩे की परिस्थिति है। इसमें चूक हुई तो एक बार फिर पार्टी की किरकिरी हो सकती है। शुरु आती दौर में येदियुरप्पा ने बहुमत की उम्मीद में मुख्यमंत्री की शपथ तो ले ली थी लेकिन सदन में बहुमत साबित नहीं कर पाए, उससे भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व काफी खफा हुआ था। कर्नाटक में अभी विधानसभा चुनाव के लिए साढ़े तीन साल का समय शेष है तो राज्य में सरकार चाहिए ही। इतने लम्बे समय तक केन्द्र के अधीन नहीं छोड़ा जा सकता।
इस लिहाज से भाजपा को एक और मौका मिला है। हाल के आम चुनाव में भाजपा पर राज्य की जनता ने पूरी तरह से भरोसा जताया है पर येदियुरप्पा को लेकर स्थिति सहज नहीं है। उन पर भ्रष्टाचार के कई मामले अतीत में रहे हैं और अब भी उन्हें इसी नजर से देखा जाता है। पर भाजपा की दिक्कत यह है कि उसके पास येदियुरप्पा के कद का कोई और नेता नहीं है। मान लीजिए किसी दूसरे चेहरे को कमान सौंपने पर विचार हो तो बहुत संभव है कि पार्टी गुटबाजी की भेंट चढ़ सकती है। भाजपा के लिए कर्नाटक दक्षिण का द्वार माना जाता है येदुरप्पा के नेतृत्व में ही भाजपा ने कर्नाटक में कमल खिलाया था। कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस सरकार के गिरने के बाद राजनीतिक हलकों में कहा जा रहा है कि अब मध्य प्रदेश और राजस्थान की बारी है क्योंकि उन दो राज्यों में भी बहुमत की दृष्टि से कांग्रेस बहुत सहज नहीं है। आगे क्या परिस्थितियां जन्म लेती हैं, यह समय बताएगा।