एक नुक़्ते ने जलील साहब को ज़लील ही कर दिया

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हिंदुस्तान में पैदा हुई, यहीं पली-बढी उर्दू के बारे में इकबाल अशहर साहब ने जब यह फ़रमाया कि- देखा था कभी मैंने भी खुशियों का ज़माना, अपने ही वतन में हूं मगर आज अकेली, उर्दू है मेरा नाम मैं खुसरो की सहेली… तो वाज़े कर दिया कि उर्दू के हालात रोज़-ब-रोज़ ख़स्ता हुए है और इसके तख़रीबकार कोई और नहीं, खु़द हम हैं।

उर्दू तुर्की लफ़्ज़ है जिसके मानी थे शाही ख़ेमा या तंबू। जब ये लफ़्ज हिंदुस्तान आया तो इसके यहां शुरुआती मानी रहे शाही ख़ेमा या फौजी पड़ाव। शाहजहां ने दिल्ली में जब लालक़िला बनवाया, यह भी एक क़िस्म से उर्दू था यानी शाही पड़ाव। वह बहुत वसीह भी था, लेहाज़ा उसे सिर्फ उर्दू न कह कर उर्दू-ए-मोअल्ला कहा गया और यहां बोली जाने वाली ज़बान, ज़बान-ए-उर्दू-ए-मोअल्ला यानी आला शाही खे़मे की ज़बान कहलाई। उर्दू नस्तालीक़ तहरीर में लिखी जाती है, जो फ़ारसी-अरबी तहरीर की एक शक्ल है। आज 5 करोड़ से ज्यादा हिंदुस्तानी उर्दू बोलते हैं। ये ज़बान की सहरकारी ही तो है कि न सिर्फ हिंदुस्तान, बल्कि उर्दू से मोहब्बत के असीर पूरी दुनियां में मौजूद हैं।

बड़ा मसला यह है कि वो ज़बान जिससे हमें इश्क़ है, उसको लवाहिक़ीन के दरमियां भी और सिनेमा के पर्दे पर भी अक्सर ग़लत बोला जा रहा है। यह बाएस-ए- फ़िक्र है। इसके पीछे की मज़ीद वजूहात पर ग़ौर करना होगा कि ऐसा क्यों है?

उर्दू में अरबी, फ़ारसी और तुर्की ज़बान के बहुत से लफ़्ज़ शामिल हैं और कुछ ऐसी आवाजें है जो दूसरे मोमालिक से हिंदुस्तान आईं। उनके सही तलफ़्फ़ुज़ सीखने और बोलने का चलन तब हिंदी में नहीं था। ये आवाजे़ं थी क़ ख़ ग़ फ़ श और ज़ जो अरबी, फारसी, तुर्की और अंग्रेज़ी जबानों में मौजूद थी। हिंदी में क ख ग फ और ज की आवाजें पहले से ही थीं। हिंदी ने उर्दू को अपने में समा लिया, दोनों ज़बानें हम-नेवाला, हम-प्याला बन गईं। लेकिन दिक्कत तब पेश आई, जब पहले से चल रहे क, ख, ग, ज और फ के नीचे नुक़्ता लगाया गया।

हिन्दी में क ख ग और फ में नुक़्ता नहीं था, लेहाज़ा वह आज भी बोलने में नहीं आ सका और उसका नतीजा ये है कि आज भी जब हम देवनागरी में उर्दू के लफ़्ज लिखते हैं, तो नुक़्ता लगाने और न लगाने की ग़लती या कम इल्मी से वह जलील से ज़लील हो जाता है। जलील यानी मोतबर और नुक़्ता लगाकर ज़लील यानी बेइज़्ज़त करना। तो एक नुक़्ते के फेर से जलील साहब ज़लील हो गए । चूंकि हिंदी बोलने वालों के लिए इसका इस्तेमाल नया था, तो तलफ़्फ़ुज़़ को लेकर दुश्वारियां पेश आईं। अक्सर व बेशतर ग़लती उन्ही लफ़्ज़ों में होती रही, जिनमें क़ ख़ ग़ फ़ और ज़ का इस्तेमाल होता है।

तलफ़्फु़ज़ की अहमियत का अंदाजा लगाने के लिए देखते हैं कुछ आम इस्तेमाल के लफ़्ज़, जो नुक़्ते के फेर से ग़लत इस्तेमाल होते है। क़मर-चांद, कमर-पेट के नीचे का जिस्म, शक़-टुकड़े करना, शक-शुबहा, ख़र- गधा, खर- पतवार, ख़ाना- घर, खाना-खूराक, ख़ुदा- भगवान, खुदा- खुदी हुई जमीन, दवाख़ाना- दवा की दुकान, दवा खाना- दवाई मुंह में खा लेना, साग़र- शराब का प्याला, सागर- समंदर, राज़- पोशीदा, राज- हुकूमत, तेज़- फुर्तीला, तेज- दमकना, क़ल्ब- दिल, कल्ब- कुत्ता, दुख़- बेटी, दुख- अफसोस। इनके फ़र्क़ को न जानने पर तलफ़्फ़ुज़ पर क़ाबू नहीं पाया जा सकता।

इसके बरअक़्स यह भी ज़रूरी है कि मस्नद-ए-इक़्तेदार को ज़बान के फ़रोग़ पर भी तवज्जो देनी चाहिए, चूंकि उर्दू तो कह रही है कि क्यों मुझको बनाते हो तास्सुब का निशाना, मैंने तो कभी खुद को मुसलमां नहीं माना। इस मौंजू पर आवाम की तवज्जो भी दरपेश है, वरना एक शीरीं ज़बान क़िस्स-ए-माज़ी बनकर कहीं तारीख के औराक़ में न सिमट जाए।

नाइश हसन
(लेखिका साहित्यकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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