‘सोशल डिस्टेंसिंग’ के दौर में सोशल मीडिया ही लोगों का एकमात्र सहारा बन रहा है। यहां सभी के पास लिखने को बहुत कुछ है। कोई कोरोना पर लिख रहा है, कोई लॉकडाउन के अनुभव पर तो कोई आपदाओं का इतिहास बता रहा है। लेकिन एक वर्ग ऐसा भी है, जो किसिम-किसिम के ‘चैलेंज’ देने में लगा हुआ है। अपने चैलेंज में दूसरों को जोड़ रहा है। किसी के पास ‘साड़ी चैलेंज’ है तो किसी के पास ‘बिंदी चैलेंज’। कोई ‘दाढ़ी चैलेंज’ दे रहा है तो कोई ‘चश्मा चैलेंज’। दिन भर यहां ऐसा ही कुछ न कुछ चलता रहता है। हालांकि इसके पीछे किसी को नुकसान पहुंचाने की मंशा नहीं होती, हलका-फुल्का मनोरंजन करने का इरादा ही काम कर रहा होता है। पर क्या यह समय वाकई ‘मनोरंजन’ का है? हां, बहुतों को लॉकडाउन मनोरंजन सरीखा ही लग रहा है। दिन भर घर में हैं। खाली हैं। या तो टीवी देख रहे हैं या फेसबुक-ट्विटर पर जमे हैं। कोई थाली सजाकर खाने की तस्वीरें फेसबुक पर पोस्ट कर रहा है तो कोई खाना खाते या बनाते हुए। पर फेसबुक को वाट्सऐप ग्रुप की तरह देखा नहीं जा सकता है।
फेसबुक सार्वजनिक मंच है जहां डाली गई पोस्ट सिर्फ मित्रों-परिजनों तक सीमित नहीं रहती। लाइक और कॉमेंट के जरिए यह विस्तार पाती चली जाती है। ऐसे में क्या इस संभावना को नकारा जा सकता है कि आज की तारीख में तरह-तरह के खाने की तस्वीरें किसी को ‘अश्लील’ भी लग सकती हैं? देश में आज एक वर्ग ऐसा भी है, जो लॉकडाउन के चलते काम-धंधा बंद होने के कारण दाने-दाने का मुहताज हो गया है। वह पेट भरने के लिए संघर्ष कर रहा है। कभी लंबी लाइनों में लगकर तो कभी पुलिस के डंडे सहकर। यह आत्ममुग्धता के प्रदर्शन का समय नहीं है। न ही यह समय महामारी को जातिगत और राजनीतिक रंग देने का है। महामारी न जाति पहचानती है न नस्ल। यह न धर्म देखती है न आस्था। बावजूद इसके टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर तू-तू, मैं-मैं बदस्तूर चल रही है। वाट्सऐप कोरोना के कथित इलाजों से भरा पड़ा है। हर किसी के पास अपना डॉक्टरी नुस्खा है।
हर कोई डॉक्टर बना हुआ है। एक तरफ तरह-तरह के चैलेंज है तो दूसरी तरफ अफवाहें भी रोके नहीं रुक पा रहीं। थाली-ताली और दीये-मोमबत्ती के जरिए वायरस को भगाने की जो दलील शुरू हुई वह रुकने का नाम नहीं ले रही। थाली पीटने की बात पुरानी हो गई, दीया भी जलकर बुझ चुका, पर इसकी वैज्ञानिकता सिद्ध करने वाले तर्क आज भी मोबाइल टु मोबाइल अपना सफर जारी रखे हुए हैं। आलम यह है कि इस मुद्दे पर किसी से बहस भी नहीं कर सकते। आलोचना करना आज की तारीख में सबसे बड़ा पाप है। तर्क का जवाब कुतर्क से दिए जाने को लोग अपनी शान समझने लगे हैं। सोशल मीडिया से मिल रहा ज्ञान ही उनके लिए अंतिम सत्य है। सब मिलकर अंधेरे में लाठी चला रहे हैं। लाठी खुद के ही क्यों न लग जाए, इसकी चिंता नहीं। अफसोस तब अधिक होता है जब खुद को बौद्धिक कहने वाला वर्ग भी ऐसी हरकतों में शामिल हो जाता है।
फेसबुक और ट्विटर पर चल रहा साड़ी-बिंदी चैलेंज तथाकथित फेमिनिस्टों की देन है। इस चैलेंज का विरोध करना ‘महिला विरोधी’ होना है। वैसे पुरुष भी कहां कम हैं। उनके पास ‘दाढ़ी चैलेंज’ है। कोरोना के खिलाफ जंग के दौरान अकेलेपन की ऊब खत्म करने और वायरस के खिलाफ लड़ाई को आसान बनाने के नेक उद्देश्यों को स्वीकार कर लिया जाए तब भी सवाल यह है कि क्या यह कार्य किसी और तरीके से नहीं हो सकता और सोशल मीडिया का इस लड़ाई में बेहतर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता? ऐसा इस्तेमाल जो ऊब तो खत्म करे, पर विभिन्न तबकों के बीच खाई चौड़ी करने के बजाय इन तबकों को करीब लाए? किसी को अपने हालात का मजाक उड़ाता हुआ न प्रतीत हो? जब तक ऐसा कोई तरीका न सूझे तब तक इन सोशल मीडिया चैलेंजों को टाल तो सकते हैं। वह भी कम नहीं होगा।
अंशुमाली रस्तोगी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं )