आईटी के नक्काल बनकर न रह जाएं हम

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ज्यादा समय नहीं हुआ जब आईटी और बीपीओ के क्षेत्र में भारतीय मेधा के कसीदे पढ़े जाते थे। अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के प्रत्याशी अपनी चुनावी सभाओं में बोलते थे कि सूचना प्रौद्योगिकी में स्किल्ड और मेहनती भारतीय युवाओं को टक्कर देना आसान नहीं। इससे उम्मीद जगी थी कि हमारा देश इलेक्ट्रॉनिक्स और कंप्यूटर साइंस से जुड़े मैन्यूफैक्चरिंग कामकाज यानी मोबाइल हैंडसेट, कंप्यूटर, लैपटॉप, सुपर कंप्यूटर आदि बनाने में भले कोई उल्लेखनीय बढ़त हासिल न कर सके, लेकिन सॉफ्टवेयर में हमें ग्लोबल लीडर बनने से कोई नहीं रोक सकता। अफसोस कि अभी तक की उपलब्धियों को देखकर हम यही कह पा रहे हैं कि हम आईटी-दासों की फौज तो हर साल सप्लाई कर सकते हैं, पर कायदे का कोई सॉफ्टवेयर अथवा ऐप आदि बनाना हमारे वश की बात नहीं। किनारे पड़ा मित्रों हालात कैसे हैं इसका अंदाजा हाल में एक ऐप ‘मितरों’ की तारीफों के पुल बांधने की कोशिशों से लग जाता है।

टिकटॉक का देसी विकल्प कहे जा रहे इस ऐप का विकास कथित तौर पर आईआईटी रुड़की से निकले छात्रों ने किया है। बताया गया कि इसे 50 लाख स्मार्टफोन्स पर डाउनलोड किया जा चुका है। पिछले दिनों एक ऑनलाइन स्पीच में इलेक्ट्रॉनिक्स और आईटी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने भी इस ऐप की जमकर तारीफ की और दावा किया कि कोविड-19 के दौर में हुए इस इनोवेशन से देश को बहुत बड़ा संबल मिला है। मंत्री महोदय की बात का आशय यह है कि पीएम मोदी ने बीते दिनों आत्मनिर्भरता पैकेज का ऐलान करते हुए लोकल के साथ वोकल और फिर ग्लोबल होने का जो आह्वान किया है, मित्रों’ ऐप उस शुरुआत की पहली कड़ी है। अच्छा होता कि यह ऐप हकीकत में एक लोकल प्रॉडक्ट होता और इसके बारे में बढ़-चढ़कर किए जाने वाले बखानों (वोकलत्व) से इसे ग्लोबल होने का मौका मिलता। टिकटॉक की तरह ही यह भी दुनिया के सिर पर चढ़कर हमारी कामयाबी की कहानी कहता।

लेकिन टिकटॉक जैसे इस मोबाइल ऐप्लिकेशन की कलई शुरुआत में ही खुल गई है। चीनी टिकटॉक के मुकाबले में आए विडियो मेकिंग और शेयरिंग के ऐप ‘मितरों’ के निर्माण के पीछे एक पाकिस्तानी कंपनी क्यूबॉक्सस के ऐप टिकटिक का नाम लिया जा रहा है। दावा है कि टिकटिक और मित्रों के सोर्स कोड एक जैसे हैं और यह पाकिस्तानी ऐप की रीब्रैंडिंग और रीपैकेजिंग से ज्यादा कुछ नहीं है। दूरसंचार मंत्री मित्रों को खालिस हिंदुस्तानी ऐप बताकर शायद पाकिस्तानी ऐप से उसकी समानताओं को खारिज करना चाहते हैं, लेकिन मित्रों और टिकटिक की सुरक्षा में मौजूद एक जैसी खामियां इस मामले में तस्वीर को काफी हद तक साफ कर देती हैं। एक बार मान भी लें कि टिकटॉक के पाकिस्तानी वर्जन टिकटिक से मित्रों ऐप का कोई लेना-देना नहीं है, तो भी इसमें मौलिकता कहां है? इसे चीनी टिकटॉक की शानदार कॉपी कहने से अगर हमारी शान में चार चांद लगते हैं, तो इस मानसिक दिवालियेपन के बारे में आखिर क्या कहा जाए।

सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री अगर नकलों के बल पर चल रही होती तो फेसबुक, ट्विटर, वॉट्सऐप, यूट्यूब, इंस्टाग्राम आदि का हमारे मुल्क में कोई नाम लेवा-पानी देवा न होता और हमने इनके शानदार विकल्प तैयार कर लिए होते। फिर भी अगर मकसद नकलों के बल पर देसी सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री को सिरे चढ़ाने का हो, तो यह काम चीन की तरह अपने यहां गूगल, फेसबुक का संचालन रोककर उनके बेजोड़-बेहतर हिंदुस्तानी विकल्प देकर हो सकता था। लेकिन ऐसा करके भी सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री को नाम-दाम नहीं मिलते। यही वजह है कि कमाई और नॉलेज आधारित अर्थव्यवस्था की होड़ में मौजूद रहकर आगे निकलने के लिए चीन में टिकटॉक जैसा बेजोड़ ऐप बना, जिसकी आज दुनिया मुरीद हुई पड़ी है। यह समझने की जरूरत है कि दूसरे तमाम काम-धंधों की तरह आईटी में भी लकीर पीटने और लीक से हटकर काम करने में बेसिक फर्क है। आईटी में बनी-बनाई परिपाटियों की बदौलत मिलने वाले कामकाज की एक सीमा होती है।

संजय वर्मा
( लेखक बेनेट यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं, ये उनके निजी विचार हैं )

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