असम की स्थिति विषम हो गई है। अगर असम की तरह कश्मीर भी खोल दिया जाए तो जरा कल्पना कीजिए कि उसकी स्थिति क्या होगी ? 1200 करोड़ रु. खर्च करने और साढ़े 6 करोड़ दस्तावेजों को खंगालने के बावजूद जो राष्ट्रीय नागरिकता सूची असम में बनी है, उसमें ऐसी-ऐसी हास्यास्पद और दयनीय भूले हैं कि जिनका जिक्र लंबे समय तक होता रहेगा। भारत के पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के परिजन इस नागरिकता सूची में नहीं जोड़े गए हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं। 3.29 करोड़ लोगों में से लगभग सिर्फ 19 लाख लोगों को गैर-असमिया याने बांग्लादेशी पाया गया है। याने लाखों प्रमाणिक भारतीय नागरिक इस सूची से बाहर हो गये हैं और लाखों अ-भारतीय नागरिकों को यह सूची पकड़ नहीं पाई है याने वे सूची के अंदर हो गए हैं।
यह मामला दुबारा सर्वोच्च न्यायालय के हवाले हो जाएगा। सरकार को यह भी पता नहीं कि जब यह सूची बन रही थी तो कितने लाख बांग्लादेशी नागरिक असम और प. बंगाल से भागकर देश के दूसरे प्रांतों में बस गए हैं ? बांग्लादेशी आगंतुकों में भी जो हिंदू हैं, वे कहते हैं कि उन्हें सताया गया, इसलिए वे भारत में शरण ढूंढ रहे हैं लेकिन जो हिंदू और मुसलमान बांग्लादेशी ऐशो-आराम और पैसे के लिए भारत में घुसपैठ किए हुए हैं, उन्हें आप कैसे पकड़ेंगे ? जिन्हें भी आप घुसपैठिया करार देंगे, उनके साथ आप क्या करेंगे, कुछ पता नहीं। बांग्लादेश आसानी से उन्हें वापस नहीं लेगा। रोहिंग्या मुसलमानों और बर्मा के साथ भी यही समस्या है।
कश्मीर में भी कमो-बेश यही हाल है। इसका समाधान क्या है ? भारत अपनी सीमाओं पर दीवार कैसे खड़ी करेगा, ‘बर्लिन वाॅल’ की तरह। जब तक पड़ौसी देश भारत-जितने संपन्न और सुखी नहीं होंगे, उनके नागरिकों की यह अवैध घुसपैठे जारी रहेगी। जरुरी यह है कि पूरे दक्षिण एशिया या पुराने आर्यावर्त्त के सभी देश एक महासंघ बनाएं, जिसका सांझा बाजार, सांझा रुपया, सांझी संसद, सांझी भाषा, सांझी उन्नति और सांझी संस्कृति पनपे। सब देशों की भौगोलिक सीमाएं नाम-मात्र की रह जाएं। लेकिन यह महान सपना पूरा कौन करेगा ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार है।