अयोध्या पर राजनीतिक पहल जरूरी

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अयोध्या में राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद भूमि विवाद में जब सुप्रीम कोर्ट ने तीन मध्यस्थों की कमेट बनाई तो भाजपा और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की शुरुआती प्रतिक्रिया इस कहावत की तरह ही थी। दोनों का कहना था कि मध्यस्था तो ठीक है पर मंदिर निर्माण के अलावा और कोई समाधान नहीं है। यानी मध्यस्थता करने वाली कमेटी मंदिर निर्माण के अलावा कोई और हल सुझाती है तो वह कबूल नहीं है।

देश के लगभग हर हिस्से में यह कहावत कि ‘पंचों की बात सर आंखों पर लेकिन पर नाला वही गिरेगा’, अलग अलग तरीके से प्रचलित है। अयोध्या में राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद भूमि विवाद में जब सुप्रीम कोर्ट ने तीन मध्यस्थों की कमेटी बनाई तो भाजपा और राष्ट्री स्वंसेवक संघ की शुरुआती प्रतिक्रिया इस कहावत की तरह ही थी। दोनों का कहना था कि मध्यस्थता तो ठीक है पर मंदिर निर्माण के अलावा और कोई समाधान नहीं है। यानी मध्यस्थता करने वाली कमेटी मंदिर निर्माण के अलावा कोई और हल सुझाती है तो वह कबूल नहीं होगा। वैसे भी भाजपा और संघ परिवार के संगठनों का नारा रहा है- सौगंध सराम की खाते हैं हम मंदिर वहीं बनाएंगे।

अस्सी के दशक के आखिर और नब्बे के दशक के शुरू में जब ‘जय श्री राम’, ‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं’, ‘राम लला हम आएंगे, मंदिर वही बनाएंगे’ जैसे नारे लगने शुरू हुए तभी अयोध्या का मामला एक राजनीतिक विवाद में तब्दील हो गया था। ये सारे नारे कोई धार्मिक महत्व के नारे नहीं, बल्कि राजनीतिक नारे हैं। तभी यह सहज समझ बनती है कि अयोध्या मामले का हल राजनीतिक तरीके से ही संभव है। सर्वोच्च अदालत ने इतना तो माना है कि राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद का भूमि विवाद सिर्फ जमीन के मालिकाना हक का विवाद नहीं है, बल्कि उससे अधिक कोई और विवाद है। तभी पांच जजों की संविधान पीठ ने मामले को मध्यस्थता के लिए सौंपे जाने का विरोध करने पर हिन्दू पक्षकारों से पूछा था कि क्या वे सचमुच यह मानते हैं कि यह जमीन के मालिकाना हक का विवाद है। अदालत ने खुद कहा था कि सिर्फ जमीन का विवाद नहीं है, बल्कि दोनों पक्षों की भावना से जुड़ा मामला है।

यह समझना कोई मुश्किल नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट से जमीन के मालिकाना हक का फैसला हो जाने भर से मामला नहीं सुलझेगा। तभी अदालत ने मध्यस्थता की पहल की है। पर मुश्किल यह है कि ये मामला सिर्फ भावना और आस्था का भी नहीं है। अगर भावना और आस्था का मामला होता तो लोगों को समझाना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं होता। आखिर दुनिया भर के इस्लामिक देशों में मस्जिदें एक जगह से दूसरी जगह हटाई जाती हैं। विकास कार्यों के लिए मस्जिद और मदरसे तोड़े जाते हैं। हिन्दुओं के मंदिरों के मामले में भी कोई बाध्यता नहीं है। अभी खुद नरेन्द्र मोदी की सरकार वाराणसी में गंगा घाट से काशी विश्वनाथ मंदिर तक जाने के लिए सड़क चौड़ी कर रही है तो रास्ते में आने वाले दर्जनों नहीं, बल्कि सैकड़ो छोटे-छोटे मंदिर और वहां स्थापित शिवलिंग आदि हटाए जा रहे हैं। लेकिन इससे किसी की भावना आहत नहीं हो रही है। जिस शहर के हर छोटे-बड़े मंदिर को लेकर कोई न कोई पौराणिक कथा है वहां चल रही तोड़फोड़ कबूल है पर अयोध्या में राममंदिर उसी जमीन पर बनेगा, जो विवादित है!

चूंकि है इसलिए इसका राजनीतिक समाधान हो तो वह बेहतर होगा। कांग्रेस जो आज कह रही है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला अंतिम होगा और सबको मानना होगा उससे पूछना चाहिए कि फिर सबरीमाला मंदिर के मामले में दिया गया सुप्रीम कोर्ट का आदेश क्यों नहीं माना जा रहा है। कांग्रेस के ही लोग भाजपा की जवाबी राजनीति में सुप्रीम कोर्ट के आदेश की धज्जियां उड़ा रहे हैं। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने तो सबरीमाला विवाद को लेकर यहां तक कहा कि सुप्रीम कोर्ट को ऐसे ही फैसले देने चाहिए, जिन्हें लागू किया जा सकता हो। सवाल है कि जब परंपरा के नाम पर एक मंदिर में महिलाओं का प्रवेश को अनुमति देने का सुप्रीम कोर्ट का आदेश नहीं माना जा रहा है तो कैसे यह भरोसा किया जाए कि दशकों से चल रहे राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद विवाद में उसका फैसला मान लिया जाएगा? वह भी तब जबकि भाजपा के सारे नेताओं ने कह दिया है कि मध्यस्थता तो ठीक है पर राम जन्मभूमि के स्थान पर मंदिर निर्णाण के अलावा इसका दूसरा कोई समाधान नहीं है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संध ने ग्वालिगयर में अपनी अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में इस पूरी प्रकिया से दूरी बना ली। संघ ने कहा है कि वह न तो इसका स्वागत करती है और न इसका विरोध करती है।

    अजित द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार है।

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