अमेरिकी नीतियों से चिंता बढ़ी

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अमेरिका पर 11 सितंबर को हुए आतंकी हमले को 20 बरस बीत चुके हैं। अगर पीछे मुड़कर देखें, तो इन दो दशकों में इस एक घटना की वजह से दुनिया पूरी तरह बदल गई। यह भी कम नाटकीय नहीं कि जब इस आतंकी वारदात की 20वीं बरसी करीब आ रही थी, तब अमेरिका तैयारी कर रहा था अफगानिस्तान से निकलने की। आखिर में उसकी वापसी पूरी तरह अराजक और लगाए गए अनुमानों के विपरीत साबित हुई। शायद यही कहना सही होगा कि तालिबान के सामने अफगानिस्तान को परोस दिया गया। अमेरिका ने आतंकवाद विरोधी लड़ाई के नाम पर जो युद्ध छेड़ा, उसने पूरे मध्य पूर्व में अराजकता फैला दी। पश्चिमी देश चल पड़े इराक, सीरिया और लीबिया में, जिसे किसी तरह तार्किक नहीं कहा जा सकता। इसका नतीजा यह हुआ कि अफगानिस्तान में जहां अमेरिका के घुसने की एक वाजिब वजह थी, वहां उसकी ताकत कमजोर पड़ गई। इस सबका सबसे बुरा असर हुआ आतंकवाद के उभार के रूप में। थोड़े वक्त के लिए इस्लामिक स्टेट या दाएश उभरकर आ गया, जिसने बड़े इलाके पर कब्जा कर लिया और दुनिया भर में आतंकवाद को बढ़ाया।

2014 में वैश्विक आतंकवाद चरम पर था। इसमें सबसे ज्यादा सक्रिय था दाएश, लेकिन उसके बाद से इस संगठन का असर कम होता गया है। अंदेशा जताया गया था कि 2017 में दाएश के पतन के बाद घर लौटने वाले हजारों लड़ाके पश्चिम में हिंसा का दौर ला देंगे। हालांकि ऐसा कुछ नहीं हुआ। इन अनुमानों के बावजूद अमेरिका या यूरोप में कोई संगठित आतंकवादी हमला नहीं हुआ है। अब पश्चिम में प्रमुख खतरा है घरेलू दक्षिणपंथी आतंकवाद। दुनिया में चल रही इन घटनाओं से भारत भी प्रभावित हुआ। 2001 में जब अमेरिका पर हमला हुआ था, वह साल आतंकवाद के लिहाज से भारत के लिए भी सबसे बुरा साबित हुआ। उस बरस 5504 लोगों की आतंकवादी घटनाओं में मौत हुई। केवल जम्मू-कश्मीर में ही 4011 जानें गईं। 2011 के बाद देशभर में होने वाली मौतों में कमी आई है। 2020 में यह संया घटकर 591 रह गई थी और इस साल पांच सितंबर तक आंकड़ा 366 है। जम्मू-कश्मीर में 2012 में सबसे कम जानें गईं, केवल 121। हालांकि बाद में इनकी संया बढ़ी। इस साल 5 सितंबर तक 162 लोग आतंकवाद से जुड़ी घटनाओं में जान गंवा चुके हैं।

इन मामलों के बढऩे की वजह है ध्रुवीकरण की राजनीति और संदिग्ध घरेलू नीतियां। ओसामा बिन लादेन ने 1996 में अल कायदा की ओर से भारत में जिहाद का आह्वान किया था। इसके बाद कई बार इसी तरह की अपील की गई। साल 2014 में इस क्षेत्र के लिए अल कायदा ने एक संगठन खड़ा किया। जम्मू-कश्मीर में कुछ सफलता के बावजूद अंसार गजवत-उल-हिंद कोई प्रभावी नेटवर्क बनाने में विफल रहा। यह भारतीय जमीन पर कोई बड़ी वारदात नहीं कर सका है। दाएश ने जून 2014 में अपना नशा जारी किया था। यह नशा दिखाता था कि इस आतंकी संगठन का दुनिया में प्रभुत्व कहां है। इसमें भारत को ‘विलायत खुरासान’ के हिस्से के रूप में शामिल किया गया था। इससे इस आशंका को बल मिला कि बड़े पैमाने पर आतंकवादी हमले हो सकते हैं। तब से सात बरस बीत चुके हैं। दाएश क्या उसके सहयोगी संगठनों ने कोई बड़ी वारदात नहीं की। दाएश से प्रभावित एक ग्रुप ने एक घटना को जरूर अंजाम दिया था। सात मार्च 2017 को भोपाल-उज्जैन पैसेंजर ट्रेन में एक धमाका किया गया। इसमें 12 यात्री घायल हुए।

दाएश के घटते असर का एक सबूत यह भी है कि केवल 169 भारतीय नागरिक इसमें शामिल होने के लिए इराक, सीरिया या अफगानिस्तान गए थे। इनमें से 56 के मारे जाने की पुष्टि हो गई है। हकीकत यह है कि पाकिस्तान की जमीन से संचालित होने वाले और वहां से समर्थन प्राप्त इस्लामिक आतंकवादी संगठन ही भारत के लिए प्रमुख खतरा हैं। पिछले दो दशकों में वे भी अपना असर खो चुके हैं। इसके पीछे इस्लामाबाद पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बढऩे समेत कई दूसरे कारण हैं। एक उड़ता हुआ अनुमान लगाया जा रहा है कि अफगानिस्तान में जेहाद की लड़ाई लड़ रहे आतंकी अब खाली हो चुके हैं। अफगान जीत के बाद इनका रुख जम्मू-कश्मीर की ओर हो सकता है। जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद इस वजह से कम नहीं हुआ, क्योंकि पाकिस्तान में लोग नहीं थे या उसके पास संसाधनों की कमी हो गई थी। आतंकी घटनाओं में गिरावट की वजह रही भारतीय सेना और स्थानीय स्तर पर उसे मिला समर्थन। अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी के बाद इस आशंका को सिरे से खारिज कर देना नासमझी होगी कि आतंकी घटनाएं बढ़ सकती हैं। इसी तरह घबराकर किसी निष्कर्ष पर पहुंचना भी नासमझी होगी।

अजय साहनी
(लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ कान्फ्लिक्ट मैनेजमेंट एंड साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल के एग्जिक्युटिव डायरेक्टर हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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