अमीरों की करनी-गरीबों को भरना

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पुरानी कहावत है और हमेशा मौजूं रहेगी कि करते अमीर हैं और भरते गरीब हैं। हाल में आई अंतरराष्ट्रीय संस्था ऑसफैम की एक रिपोर्ट से सामने आया कि दुनिया के सबसे अमीर एक फीसदी लोग जितना कार्बन उत्सर्जन करते हैं, वह दुनिया की आधी गरीब आबादी के उत्सर्जन से दोगुना है। इन नतीजों के आधार पर इस अंतरराष्ट्रीय गैर सरकारी संस्था ने अमीरों पर कार्बन उत्सर्जन से संबंधित पाबंदियां लगाने की मांग की है। उसका सुझाव है कि विश्व में जलवायु परिवर्तन के मामले में सबकी भागीदारी तय की जाए। इसकी न्यायोचित व्यवस्था स्थापित करने के लिए सार्वजनिक ढांचों में निवेश बढ़ाने और अर्थव्यवस्था में सुधार किया जाए। ऑसफैम ने 1990 से लेकर 2015 के बीच 25 सालों के आंकड़ों का अध्ययन किया। यह वही अवधि है जिसमें विश्वका कार्बन उत्सर्जन दोगुना हो गया। रिपोर्ट में बताया गया कि इस दौरान विश्व के 10 फीसदी सबसे अमीर लोग ही कुल वैश्विक उत्सर्जन के आधे से भी अधिक (करीब 52 फीसदी) के लिए जिमेदार हैं। यहां तक कि विश्व के 15 फीसदी उत्सर्जन को रिसर्चरों ने केवल टॉप एक फीसदी अमीरों की गतिविधियों से जुड़ा पाया।

वहीं दुनिया की आधी गरीब आबादी ने इसी अवधि में केवल 7 फीसदी उत्सर्जन किया, जबकि जलवायु परिवर्तन का सबसे बुरा असर दुनिया के गरीबों को ही झेलना पड़ा रहा है। अमीरों और गरीबों के कार्बन उत्सर्जन में इतना बड़ा अंतर नजर आने का सबसे बड़ा कारण ट्रैफिक है। खासकर हवाई यात्रा से जुड़ी व्यवस्था में बदलाव लाकर बहुत कुछ बदला जा सकता है। ऑसफैम ने स्टडी में पाया कि 2010 से 2018 के बीच एसयूवी गाडिय़ां कार्बन उत्सर्जन का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत रहीं। ऑसफैम का अनुमान है कि धरती के तापमान में बढ़ोत्तरी को 1.5 डिग्री तक सीमित रखने के वैश्विक लक्ष्य को पूरा करने के लिए सबसे अमीर 10 फीसदी आबादी को अपने उत्सर्जन को वर्तमान स्तर से 10 गुना नीचे लाना होगा। संस्था ने उचित ही कहा है कि अमीरों से अपनी इच्छा से व्यक्तिगत स्तर पर बदलाव लाने की उम्मीद करना काफी नहीं होगा। इसकी कमान सरकारों को अपने हाथ में लेनी ही होगी। जलवायु से जुड़े मुद्दों पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं का मानना है कि नए और ऊंचे टैस लागू करने के लिए यह सबसे सही मौका है।

विशेषज्ञों का मानना है कि इस तरह के अतिरिक्त टैसों से होने वाली कमाई को दुनिया के सबसे गरीब लोगों की मदद में लगाया जा सकता है। यह न्याय की दिशा में कदम होगा। हां कोरोना दौर में उत्सर्जन कम हुआ है लेकिन इसका श्रेय ना तो अमीरों को दिया जा सकता है और ना ही नेताओं को। उल्टे दुनिया ने कोरोना महामारी की भारी कीमत चुकाई है। क्या इसके लिए विभिन्न देशों के सत्ताधारी नेता जिमेदार हैं? इस विषय पर आई एक रिपोर्ट ने यही दावा किया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि नेताओं को एक संक्रामक महामारी से लडऩे के लिए तैयार रहने की चेतावनी दे दी गई थी, लेकिन नेताओं ने उसे गंभीरता से नहीं लिया। जाहिर है, रिपोर्ट में नेताओं को जोखिम का सामना कर रही दुनिया को अशांति की अवस्था में लाने का जिम्मेदार ठहराया गया है। ये रिपोर्ट ग्लोबल प्रीपेयरेडनेस मॉनिटरिंग बोर्ड (जीपीएमबी) ने तैयार की है।

इस संस्था के सहसंयोजक विश्व बैंक और विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) हैं। रिपोर्ट में कहा गया कि तैयारी करने के लिए पर्याप्त वित्तीय और राजनीतिक निवेश नहीं किया गया। हम सब उसकी ही कीमत चुका रहे हैं। 2019 में जीपीएमबी की रिपोर्ट चीन में कोरोना वायरस के सामने आने से कुछ महीने पहले जारी की गई थी। उसमें कहा गया था कि सांस के जरिए असर करने वाले एक घातक रोगाणु की वजह से तेजी से फैलने वाली एक महामारी का वास्तविक खतरा है। चेतावनी भी दी गई थी कि ऐसी महामारी लाखों लोगों की जान ले सकती है और वैश्विक अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर सकती है। रिपोर्ट में दी गई ये चेतावनी भी अहम है कि अगर कोविड-19 से सीख लेने और आवश्यक संसाधनों के साथ आगे रोकथाम करने में चूक हुई, तो उसका नतीजा होगा कि अगली महामारी- जिसका की आना तय है- और ये ज्यादा नुकसानदेह होगी।

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