अब समझ में आ रही है एक-एक वोट की कीमत

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नरेन्द्र मोदी की चाहे ढेर सारी बातें जनता का एक तबका या विरोधी नेता सही ना मानते हों लेकिन एक बात उन्होंने सही कही है कि देश को त्रिशंकु जनादेश की जरूरत नहीं है। उनके नजरिए से जनता को तय करना है कि वो मजबूर सरकार चाहते हैं या मजबूत जो देश हित में कड़े फैसले कर सकें। निसंदेह सत्ता के लोभी नेताओं को छोड़कर देश का हर नागरिक इस बात को मानेगा कि सरकार पूर्ण बहुतम की ही होनी चाहिए। हजारों करोड़ हर चुनाव पर अगर खर्च होता है और खजाने से बहता है तो फिर कौन रोज-रोज के चुनाव को सही ठहराएगा? वैसे भी खिचड़ी सरकारें राजपाट आने पर खिचड़ी ही पकाती रहती हैं और खिचड़ी एकाध वक्त खाने में अच्छी रहती है लेकिन पांच साल लगातार तो कतई नहीं।

तो फिर मोदी को भी अब ये क्यों लग रहा है कि देश की जनता खिचड़ी पकाएगी? ये संदेश क्यों आ रहा हैं कि खिचड़ी पकेगी? क्या टीवी चैनलों के सर्वे इसका संदेश छोड़ रहे हैं या फिर यूपी में हुए उपचुनाव और उसके बाद तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे? या फिर यूपी में सपा-बसपा का गठजोड़ और प्रियंका गांधी की एंट्री? जिसकी वजह से 2014 जैसी मोदी लहर अब भाजपाईयों को ही नजर नहीं आ रही है। इसके लिए कोई फैक्टर काम नहीं करता अगर मोदी का राजपाट सही दिशा में जाता हुआ जनता को लगता। राष्ट्रप्रेम क्या किसी को कानून के डर से सिखाया जा सकता है? 4-5 साल में खोखली देशभक्ति के डरावने पहलू क्या लोगों को ये एहसास दिला सकता हैं कि सब कुछ सही है? मोदी सरकार के आंकड़ो के खेले को ही सही मानें और उनके दावों को भी तो फिर आजादी के बाद किसी ने अगर इतना जनकल्याण नहीं किया था जो मोदी राज में हुआ तो फिर क्या भारत की जतनता इतनी बेपरवाह है कि उसे ये सब ऐन वक्त पर जनर नहीं आएगा?

2014 के चुनाव से साफ संकेत थे कि कांग्रेस शायद ही 10 साल फिर वापसी के बारे में सोच सके। कांग्रेस के अलावा बाकी कोई दल ऐसा देश में आज भी नहीं है जो अकेला या मिलकर देश की सत्ता के शीर्ष के बारे में सोच सके। अगर मैदान पूरी तरह साफ था और भाजपा के कब्जे में था तो फिर ऐसा क्या किया जो देश का सिरमौर फिर आसानी से मिलने की उन्हें आस नही? एकतरफा मुकाबला करीबी कैसे दिखेने लगा? कारण तो हैं। गलतियां तो हैं लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि कोई माने तो सही। तीन राज्यों के नतीजों से पहले तक भाजपा नहीं कर सकता। 50 साल तक राज करने के बड़े बोल कैसे कोई झेल सकता है? अहंकार अगर महाबलशाली राजा रावण का नहीं टिका था तो फिर मोदी व शाह की शारीरिक संरचना के हर समय टपकने वाले इस रस को जनता क्यों चखे और क्यों रसावदन करें? अगर अपनों को भी ये नजर आ रहा था तो फिर जनता को कैसे नजर नहीं आता? चार साल तक आखिर मोदी ये क्यों नहीं समझ पाए कि वो अमेरिका के नहीं बल्कि भारत के वित्त मंत्री है।

जब हिसाब देने का वक्त आया है तो अब तक हशिए पर बैठे नेता भी मोदी व शाह की जोड़ी को याद आने लगे हैं। फेल को चुकी नोटबंदी को भी लगातार सही फैसला क्यों बताया जाता रहा? निसंदेह इस सरकार के कई योजनाएं बहुत बेहतरीन बनाई लेकिन जहां चूक हुई उसे ना तो ठीक किया गया और ना ही ये माना कि गलती हुई। अगर गलती ही नहीं मानी जायेगी तो फिर उसे ठीक करने का सवाल ही कहां पैदा होता है? डेढ़ साल पहले तक लाखों वोट की चिंता ना करने वाले शाह-मोदी अब एक-एक वोट की कीमत समझ रहे हैं और चिंता में खोए हैं तो केवल अपनी करनी से। विपक्ष में दम ही कहां था?

लेखक
डीपीएस पंवार

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