अब श्रम कानूनों में बदलाव का घाव

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शिक्षा और कृषि का ‘कल्याण’ करने के बाद केंद्र सरकार ने मजदूरों के ‘कल्याण’ का बीड़ा उठाया है। इसके लिए विपक्ष की गैरहाजिरी में बिना बहस कराए केंद्र सरकार ने तीन लेबर कोड बिल पास कराए हैं। सरकार ने तीन विधेयकों-इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड बिल 2020, सोशल सियोरिटी कोड बिल 2020 और ओयूपेशनल सेफ्टी, हेल्थ एंड वर्किंग कंडीशन बिल 2020 में 29 श्रम कानूनों का विलय करा दिया है। यानी 29 छोटे-बड़े कानूनों या नियमों को एक साथ मिल कर तीन कानून बनाए गए हैं। सरकार कह रही है कि इन कानूनों से मजदूरों का बहुत भला होने वाला है। उनकी मुश्किलें कम होंगी, रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और उनको सामाजिक सुरक्षा भी मिलेगी। पर या सचमुच ऐसा है? अगर इन विधेयकों पर संसद में चर्चा होती और विपक्षी पार्टियों के सांसद भी उसमें हिस्सा लेते तो इनकी कुछ बारीकियां सामने आतीं। इसके बावजूद पहली नजर में ऐसा लग रहा है कि इन कानूनों को लेकर सरकार जो दावा कर रही है वह सरकार के दूसरे दावों की तरह ही है। जैसे कृषि विधेयकों से सरकार किसानों का भला होने का दावा कर रही है कुछ कुछ उसी किस्म का भला इन कानूनों से मजदूरों का होने वाला है। किसानों का भला करने के नाम पर जैसे सरकार बड़ी खाद्यान्न कंपनियों और अनाज का निर्यात करने वाली कंपनियों का भला कर रही है वैसे है श्रम कानूनों में बदलाव से सरकार मजदूरों की बजाय उद्योगों का संरक्षण कर रही है। सरकार ने इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड बिल 2020 में सरमायदार और मजदूर के बीच के संबंधों को बदलने का प्रावधान किया है। उद्योगपति और मजदूर का संबंध पहले भी मालिक और नौकर वाला ही था पर इस बदलाव के बाद मालिक और गुलाम वाला हो जाएगा।

इसमें मजदूरों के हड़ताल करने के अधिकार को कम कर दिया गया है और मजदूरों के हित से जुड़े मुद्दे उठाने की उनके अधिकार को भी कम कर दिया गया है। मिसाल के तौर पर अब मजदूर आसानी से हड़ताल नहीं कर सकेंगे। इस विधेयक के मुताबिक कोई भी मजदूर 60 दिन का नोटिस दिए बगैर हड़ताल नहीं कर सकता है। साथ ही जब तक किसी भी ट्रिम्यूनल के सामने मजदूर या मजदूरों का मामला लंबित है तब तक उस पर हड़ताल नहीं की जा सकती है। इसके अलावा यह भी प्रावधान कर दिया गया है कि फैटरी या कंपनी का मालिक सिर्फ उसी मजदूर संगठन की बात सुनेगा, जिसमें कंपनी के 51 फीसदी मजदूर सदस्य होंगे। इसका मतलब है कि कंपनियां अब सिर्फ एक मजदूर संगठन की बात सुनेंगी और बाकी छोटे-छोटे दूसरे संगठनों की बात सुनना जरूरी नहीं रह जाएगा।सरकार कह रही है कि कई राज्यों ने अपने यहां पहले से इस कानून को लागू किया है और इससे उनके यहां छंटनी और कंपनियों के बंद होने की संख्या घटी है। पर यह किस्म का भ्रम है। असलियत यह है कि सरकार से मंजूरी लेकर छंटनी करने या कंपनी बंद करने के लिए जरूरी सौ मजदूरों की सीमा को तीन गुना बढ़ाना मजदूरों की रोजगार सुरक्षा को पूरी तरह से खत्म कर देगा। इस दायरे में आने वाली कंपनियों की संख्या बहुत बढ़ जाएगी और वे मनमाने तरीके से बहाली या छंटनी करेंगे। सरकार ने इसमें मजदूरों में कौशल विकास के लिए उपाय करने को कहा है पर वह कंपनियों की मर्जी पर है और श्रम कानूनों के जानकारों का कहना है कि यह बहुत अस्पष्ट है।

सरकार ने सोशल सियोरिटी कोड बिल 2020 में सरकार ने नेशनल सोशल सियोरिटी बोर्ड बनाने का प्रस्ताव किया है। कहा गया है कि यह बोर्ड मजदूरों की भलाई के लिए खास कर अनौपचारिक या असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की भलाई के लिए योजनाएं शुरू करने के सुझाव देगी। यह अच्छी बात है कि सरकार इसका दायरा बढ़ा रही है और स्वतंत्र रूप से क्या अकेले इधर-उधर काम करने वाले मजदूरों को भी इसमें शामिल कर रही है। ऑनलाइन प्लेटफॉर्म या ई-कॉमर्स कंपनियों के लिए स्वतंत्र रूप से काम करने वाले मजदूरों को भी इसमें शामिल किया जा रहा है। यह उसी तरह से है, जैसे सीएसआर फंड के जरिए सामाजिक, सांस्कृतिक सुधार की उमीद की गई थी। मजदूरों की सुरक्षा, कामकाज की स्थितियों और सेहत आदि को लेकर जो बिल पास किया गया है उसमें अच्छी बात यह है कि इसमें एक राज्य से दूसरे राज्य में जाकर काम करने वाले मजदूरों को वहां के स्थानीय मजदूर की तरह ही मानने और उसे मिलने वाली सारी सुविधाएं दिए जाने का प्रावधान है। परंतु इसमें भी उनकी सेवा लेने वाली कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए कामकाज की जगह के आसपास मजदूरों को रहने की जगह देने के प्रावधान को हटा दिया गया है। अब कंपनी वर्कसाइट के पास उनको रहने की जगह मुहैया कराने की बजाय प्रवासी मजदूरों को आने-जाने के भाड़े के तौर पर एक निश्चित रकम दे देंगी। बस कंपनियों की इतनी ही जिमेदारी होगी। सो, कुल मिला कर तीनों कानून मजदूरों से ज्यादा उद्योगपतियों, कारोबारियों को फायदा पहुंचाने वाले हैं।

सुशांत कुमार
(लेखक पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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