अब ताली ही तो बजाते आडवाणी-जोशी !

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मेरी एक पत्रकार महिला मित्र थी। जब वे मेरी किसी बात से खुश होकर उस पर टिप्पणी करना चाहती तो वह दक्षिण भारतीय जिन्होंने काफी समय महाराष्ट्र में बिताया था मुझसे कहती ‘सर आप तो दुवात्मा (महान आत्मा) हो। जब से नरेंद्र मोदी सत्ता में आए हैं तभी मुझे भी वे दुवात्मा नजर आने लगे हैं। कई बार तो मन करता है कि मैं उन्हें साधू मान लूं। वे तो उनसे भी ऊपर हैं। वे ज्ञान की ऐसी ज्योति है जिसकी कल्पना करना भी मुश्किल है।

हमने आज तक जो किताबों में उपदेश पढ़े थे वे उन्हें हमारे जीवन काल में साकार करके दिखला दे रहे हैं। हमें बताया जाता था कि जीवन में भौतिक सुखों से दूर रहना चाहिए, धन तो मिथ्या है। उस बात को उन्होंने देश में नोटबंदी लागू करके सही करके दिखा दिया। धन दौलत हमें मिथ्या नजर आने लगी। हम लोग गरमियों में खाली होने के बावजूद प्रेस क्लब जाकर एक बोतल ठंडी बियर से लेकर शाम की चाय के साथ समोसा तक नहीं खाने के लिए मजबूर हो गए। क्या खाना, क्यों खाना, क्यों खर्च करें जैसे सोचते हुए हमारे लिए बाहर खाना ही मिथ्या साबित हुआ।

दूसरा अनुभव उन्होंने हमें कोरोना काल में कर दिखाया है। याद नहीं कि कितने साल पहले हमने नया कपड़ा सिलवाया था या हलवाई की दुकान पर जाकर मिठाई ली थी। आजकल तो खाने-पीने की छुट्टी है। मैं सूफी हो गया हूं। नरेंद्र मोदी ने सड़कों व बाजारों में आम आदमी से लेकर कारे तक गायब कर दी है और लगने लगा कि लगा कि बस जी लेना ही सत्य है। अगर कोरोना हो गया तो वह दुख मिथ्या साबित होगा।

मेरी याददाश्त में पहली बार मानों विदेशी खरीद हुई है, राफेल आया तो ताली बजाकर लोगों को भी ऐसा करने के लिए मजबूर कर देना वह कमाल है जो खबरिया चैनलों के लिए चीन की शांमत आ गई। अपना शुरू से मानना है कि हमारे प्रधानमंत्री एक तो जाति से व्यापारी है वह भी गुजराती। बहुत समय पहले एक तस्कर ने मुझसे पूछा था कि आप क्या महात्मा गांधी की सफलता का राज जानते हैं? मेरे द्वारा इंकार किए जाने पर उन्होंने कहा था कि एक तो वे बनिया व्यापारी थे और वह भी गुजराती। उन्होंने फिर पूछा कि आज पूरा देश गांधी टोपी पहनता है। उत्तर प्रदेश ने तो गांधी टोपी पुलिस के यूनिफार्म में शामिल है मगर क्या कभी आपने बापू गांधी को गांधी टोपी पहने देखा है। उनकी एक ही टोपी पहने तस्वीर मिलती है वह भी उनके बचपन की है। जिसमें वे गोल काठियावाड़ी टोपी पहने हुए हैं।

इसलिए ध्यान रहे कि दूसरो को टोपी पहनाने का शब्द गुजरात की ही देन है। आज पूरा देश गांधी टोपी पहनकर उनका दीवाना बना हुआ है। दरअसल मार्केटिंग गुजरातियो के खून में शामिल होती है। इसलिए देश का पहला मार्केटिंग प्रबंध संस्थान गुजरात में ही खोला गया था। दो गुजराती महात्मा गांधी व जिन्ना के कारण ही भारत व पाकिस्तान अस्तित्व में आए थे। मुझे लगता है वह सच कह रहा था कि मार्केटिंग में गुजरातियो का जवाब नहीं है।

मंदिर का ताला खुलवाने के लिए कांग्रेस के अध्यक्ष रहे राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री रहते इतने पापड़ बेले, दौड़-भाग की उन्होंने ताला खुलवाकर मंदिर मुद्दे की फसल बोयी लेकिन भाजपा खासतौर नरेंद्र मोदी ने न केवल वह फसल काटी बल्कि फूड कारपारेशन ऑफ इंडिया की तरह उससे अपने वोटों के गोदाम भर लिए। दो बार लाल कृष्ण आडवाणी ने शिलापूजन के साथ अपनी रथ यात्रा शुरू की थी और आज नरेंद्र मोदी को मंदिर का पुनः शिलान्यास करने जा रहे हैं जिसमें समाचारों के अनुसार महज 150 लोगों को ही आमंत्रित किया गया है। लालकृष्ण आडवाणी व भाजपा के पूर्व अध्यक्ष डा मुरली मनोहर जोशी को  इस मौके पर नहीं बुलाया गया है। यह  तो उस भारतीय हिंदू पति की व्यवस्था जैसा मामला है जिसमें शास्त्रों द्वारा पत्नी द्वारा बच्चा जन्मते समय वहां मौजूद होने पर प्रतिबंध लगाया हुआ है।

कई बार सोचता हूं कि नरेंद्र मोदी ने ऐसा करके मंदिर आंदोलन के सभी नेताओ पर बहुत उपकार किया है। अगर वे लोग इस मौके पर मौजूद होते तो प्रधानमंत्री द्वारा भूमि पूजन किए जाने के बाद आवडाणी- डा जोशी दोनों नेता अगली पंक्ति पर भीड़ में बैठे तालियां बजा रहे होते और पूरे देश में उसका लाइव प्रसारण हो रहा होता तो इन दोनों की कैसी दुर्गति होती। नरेंद्र मोदी ने इस मौके पर इनका अपमान होने से बचा लिया। उन दोनों के हाथ तो सीता स्वंयभर की शादी की इच्छा लेकर आए उस रावण जैसी होती जिसमें माना जाता है कि राम द्वारा धनुष तोड़े जाने पर उसने तालियां बजायी थी।

पूरे मामले में इस आंदोलन की प्रखर व मुखर नेता उमा भारती का बयान काबिले तारीफ हैं। वे अपने को आमंत्रित किए जाने की खबरो के बीच गजब के बयान दे रही हैं। कभी कहती है कि सारी नदियां समुद्र में गिरकर अपना कर्तव्य निभाती है। उसी तरह मोदीजी का वहां जाना तो सारी नदियो के समुद्र में गिरने जैसा है। गनीमत है कि उन्होंने यह नहीं कहा कि समुद्र, समुद्र में गिर रहा है। हम नालिया और तालाब है।

मुझे पता है कि कई बार हमारे जीवन में ऐसा क्षण अवसर आते हैं जबकि हमें इस तरह की बातें कहने के लिए मजबूर हो जाना पड़ता है। एक बार मैं प्रेस परिषद के खरचे पर मिजोरम गया। वहां के राज्यपाल हमारे परिचित थे जोकि इसाई थे। उन्होंने हमें राजभवन में खाने पर बुलाया। जब हम उनके घर जा रहे थे तो रास्ते में हमें कई दुकानों पर काले रंग का मांस बिकते देखा। पूछने पर पता चला कि वह तो सुअर का मांस था। जब हम उनसे मिलने पहुंचे तो हमें चाय पिलाने के बाद उन्होंने खाने पर आमंत्रित किया।

बैरा खाना लेकर आया। एक व्यंजन को देखकर मुझे शक हुआ तो मैंने धीरे से बैरे से पूछा कि वह क्या था तो उसने बताया कि वह सुअर था। जिसे यहां काफी पसंद किया जाता है। जब राज्यपाल खाने की मेज पर आए तो मैंने उनसे माफी मांगते हुए कहा कि आज मंगलवार है और मैं इस दिन मासांहार नहीं खाता। बाकी सभी पत्रकारों ने भी मेरे स्वर में स्वर मिलाया। तो उन्होंने लज्जित होकर उसे खाने के लिए क्षमा मांगते हुए कहा कि मुझे तो लगा कि आप पत्रकार लोग सबकुछ खाते होंगे। आज जब उमा भारती को लीपापोती,  सफाई के अंदाज में बोलते हुए देखता हूं तो वह घटना याद आ जाती है। वैसे जिस दिन मंदिर जाता हूं उस दिन न तो नॉनवेज खाता हूं और न ही शराब पीता हूं। हालांकि अब तो मैंने ये दोनों चीजे भी छोड़ दी है।

विवेक सक्सेना
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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