मनुष्यों का जीवन अत्यंत मूल्यवान है। इतिहास में मानव जीवन के उद्भव के बारे में अनेक वर्णन हैं। इस संबंध में वैज्ञानिकों और आध्यात्मिक विचारकों में सदैव मतभेद रहे हैं। वैज्ञानिक मनुष्य के अतिरिक्त संपूर्ण जगत के बारे में वे तथ्य और अवधारणाएं प्रकट करते हैं, जबकि आध्यात्मिक विचारकों की दृष्टि में संपूर्ण जीव-जंतुओं से भरी इस सृष्टि का संचालन ईश्वरीय शक्ति से हो रहा है। जब मानव विवेक स्थिर होकर परिपक्वता ग्रहण करता है तो उसमें आध्यात्मिकता से सहमत होने का गुण उत्पन्न होता है।
जब मनुष्य को मानसिक अथवा आध्यात्मिक जगत में चलना है, तब सामने उसका कोई स्थूल लक्ष्य नहीं रह सकता। मानसिक जगत में मनुष्य को जब चलना पड़ता है तो हमेशा मन में यह याद रखना पड़ता है कि हमें इस व्रत को पूरा करना है। यह बात जब तक याद है तब तक मानसिक जगत में प्रगति होती रहती है। मनुष्य की चेतना में उत्तरोत्तर विकास होता रहता है। मानसिक क्षेत्र के ऊपर आध्यात्मिक क्षेत्र है। आध्यात्मिक जगत में भी केवल अपने मिशन के विषय में चिंतन करना ही पर्याप्त नहीं है, क्योंकि मिशन का उद्देश्य है बाहरी जगत की सेवा करना।
अध्यात्म कहता है कि बीतते हुए पल का आनंद लो, उस पल में रहो, हर पल को खुशी के साथ जियो। हर परिस्थिति, सुख-दुख, मान-सम्मान, लाभ-हानि से गुजरते हुए अपने में मस्त रहो। द्वंद्वों में सम्भाव में रहो क्योंकि मुक्ति मरने के बाद नहीं, जीते जी की अवस्था है। जब हम अपने स्वरूप के साथ जुड़कर हर पल को जीते हैं, तब वह जीते जी मुक्त भाव में ही बना रहता है। अध्यात्म कोई मंजिल नहीं बल्कि यात्रा है। इसमें जीवन भर चलते रहना है। यह यात्रा हमें वर्तमान में रहना और सभी में आनंद लेना सिखाती है।
अध्यात्म एक दर्शन है, चिंतन-धारा है, विद्या है, हमारी संस्कृति की परंपरागत विरासत है, ऋषियों_मनीषियों के चिंतन का निचोड़ है, उपनिषदों का दिव्य प्रसाद है। आत्मा, परमात्मा, जीव, माया, जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म, सृजन-प्रलय की अबूझ पहेलियों को सुलझाने का प्रयत्न है अध्यात्म। अज्ञात परतत्व की खोज, परमात्मा की खोज, परमात्मा के अस्तित्व, उसके स्वरूप, गुण, स्वभाव, कार्यपद्धति, जीवात्मा की कल्पना, परमात्मा से उसका संबंध, इस भौतिक संसार की रचना में उसकी भूमिका, जन्म से पूर्व और उसके पश्चात की स्थिति के बारे में जिज्ञासा, जीवन-मरण चक्र और पुनर्जन्म की अवधारणा इत्यादि प्रश्नों पर चिंतन और चर्चाएं की गईं और उनके आधार पर अपनी-अपनी स्थापनाएं दी गईं। इन्हीं के आधार पर पुराणों और अन्य शास्त्रों में व्याख्याएं, कथाएं, सूत्र, सिद्धांत लिखे और गढ़े गए।