आरक्षण देने के लिए पिछड़ी जातियों की सूची तैयार करने का अधिकार राज्यों को सौंपने की खातिर सांसदों ने अभूतपूर्व एकता दिखाई है। लेकिन, ऐसा करते हुए वे मंडल कमीशन की रपट के इतिहास के एक अहम वाकये को भूल गए। अगर वे इसे निगाह में रखते तो पिछड़े समुदायों के बीच उनके आरक्षण के प्रतिशत का न्यायसंगत बंटवारा सुनिश्चित कर सकते थे।
सांसदों को याद रखना चाहिए था कि आयोग की रपट सर्वसम्मत नहीं थी। उसमें एक असहमति का स्वर भी था। यह था आयोग के एकमात्र दलित सदस्य आर.एल. नाइक का। नाइक ने बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल को एक सुचिंतित सुझाव दिया था कि अन्य पिछड़े वर्ग को दो हिस्सों में बांट देना चाहिए। एक हिस्सा उन जातियों का हो जो भूस्वामी हैं। ये किसान जातियां आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से अपेक्षाकृत मजबूत हैं।
दूसरा हिस्सा उनका हो जो कारीगर जातियां हैं। ये निहायत गरीब समुदाय हैं जिनकी विपन्नता और वंचना कुछ मामलों में दलितों से भी ज्यादा है। नाइक ने दोनों जाति-समूहों के लिए आरक्षण का अलग-अलग स्पष्ट प्रावधान करने का आग्रह भी किया। मंडल ने नाइक को तरजीह नहीं दी। परिणामस्वरूप उन्होंने रपट पर दस्तखत करने से इंकार कर दिया, और अपनी असहमति की टिप्पणी पेश कर दी।
अगर नाइक की बात मान ली जाती तो क्या होता? आज अन्य पिछड़े वर्गों को मिलने वाले आरक्षण की नीति काफी हद तक विवाद मुक्त होती। सामाजिक न्याय की राजनीति आज के मुकाबले स्वस्थ, समतामूलक और वितरण परक तो होती ही, इन जातियों में कहीं बेहतर राजनीतिक एकता की जमीन भी बनती।
अन्य पिछड़े वर्गों पर अगर संख्या की दृष्टि से निगाह डाली जाए तो साफ हो जाता है कि यह वर्ग अपेक्षाकृत खुशहाल और बेहद विपन्न जातियों में पचास-पचास फीसदी बंटा हुआ है। आरक्षण के ज्यादातर लाभ संख्याबल में मजबूत और राजनीतिक गोलबंदी में अधिक सक्षम जातियों के हाथ में सिमटते चले गए।
धीरे-धीरे पिछड़ों में ‘अपर’और ‘लोअर’ के बीच खाई बढ़ती चली गई। आज स्थिति यह है कि अति पिछड़ी जातियों ने भी अपनी अलग पार्टियां बना ली हैं, और वे ‘अपर’ ओबीसी नेताओं के साथ गठजोड़ करने से पहले सौ बार सोचती हैं। दरअसल, अति पिछड़ों को ऊंची जातियों की प्रधानता वाली पार्टियों से गठजोड़ करने में कम आपत्ति होती है, क्योंकि उन्हें पता है कि वे उनके साथ किसी किस्म की होड़ में नहीं हैं।
आज पिछड़े वर्ग की राजनीति के बिखरे होने और अति पिछड़ी जातियों की जारी वंचना का एक बड़ा कारण मंडल द्वारा नाइक की सिफारिश न मानना तो है ही, इन सिफारिशों को लागू करते समय विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा भी इसकी उपेक्षा करने की भी इसमें ऐतिहासिक भूमिका है।
संशोधन विधेयक पारित करने में दिखाई गई संसदीय एकता का एक परिणाम यह भी निकल सकता है कि राज्यों द्वारा पिछड़ी जातियों की सूची बनाते समय उनमें और भी अधिक प्रबल और प्रभुत्वशाली जातियां अपने दबदबे के दम पर घुसपैठ कर लेंगी। मराठों, पटेलों और जाटों को जैसे ही पिछड़ी जातियों की सूची में शामिल किया जाएगा, अति पिछड़ी जातियों को हाशिये में और ज्यादा सिकुड़ जाना पड़ेगा। एक तरह से यह फैसला आरक्षण-नीति की विकृतियां को और बढ़ा सकता है।
अभय कुमार दुबे